आर्थिक समीक्षा कुछ दिलचस्प तथ्य

आर्थिक समीक्षा कुछ दिलचस्प तथ्य

सरकार द्वारा करवाई गई आर्थिक समीक्षा मौजूदा आर्थिक मंदी को समझने में सफल रही है। इसमें नई अंतर्दृष्टि प्रदान की गई है जो ढांचागत बनाम चक्रीय मंदी के पारंपरिक वर्गीकरण से परे है। यह दावा करती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वर्ष 2011-12 से ही वृद्धि में धीमेपन के प्रभाव में है। इसके मुताबिक मंदी की जड़े सन 2000 के दशक के ऋण के बुलबुले में छिपी हैं जिसके कारण खपत और वृद्धि में अचानक तेजी आई थी। जब यह बुलबुला फूटा तो कंपनियां या तो दिवालिया हो गईं या इसका अनुमान होने पर उन्होंने अपना ऋण चुकाने की आपाधापी दिखाई। सन 2000 के दशक की ऋण आधारित तेजी मौजूदा दशक के साथ समापन की दिशा में बढ़ी।

कंपनियां क्षमता विस्तार के लिए नया ऋण लेने के बजाय पुराना कर्ज चुकाने में रूचि ले रही थीं। इससे निवेश प्रभावित हुआ। निवेश में गिरावट से जीडीपी वृद्धि प्रभावित होने लगी, इस धीमेपन ने खपत की मांग पर असर डाला। आर्थिक जगत का गणित कुछ ऐसा है कि मंदी का असर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक परिलक्षित होने में काफी वक्त लेता है। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि निजी निवेश जीडीपी को 3-4 वर्ष के अंतराल पर प्रभावित करती है और जीडीपी वृद्धि का खपत पर प्रभाव 1-2 वर्ष के अंतर पर सामने आता है। इस हिसाब से देखें तो खपत में मंदी का सिलसिला 2017-18 में प्रभावी हुआ। धीमी वैश्विक वृद्धि और वित्तीय क्षेत्र पर बढ़े हुए जोखिम से ऐसी आर्थिक मंदी उत्पन्न होती है जिसने कुछ वर्ष से हमारी अर्थव्यवस्था को चपेट में लिया है।

आर्थिक समीक्षा का यकीन है कि 2019-20 में आर्थिक चक्र निमतम स्तर छू चुका है।

दिलचस्प बात है कि आर्थिक समीक्षा की तथाकथित थीम है ‘एनेबल मार्केट्स, प्रमोट प्रो बिजनेस पाॅलिसीज ऐंड स्ट्रेंथन ट्रस्ट इन इकनाॅमी।’ इसके अलावा समीक्षा के पहले भाग की शुरूआत नैतिक रूप से परिसंपत्ति तैयार करने से होती है और इसमें 5 लाख करोड़ डाॅलर की अर्थव्यवस्था बनने के लिए कारोबार और बाजार के अनुकूल नीतियां बनाने की बात शामिल हैं। बाजार और कीमतों में सरकार के हस्तक्षेप के खिलाफ तगड़ी दलीलों के साथ यह सरकार और उद्योग जगत के बीच नए सिरे से ताल्लुकात का प्रयास करती है।

ऐसे में अगली आर्थिक समीक्षा के लिए अच्छा होगा कि वह न केवल अर्थशास्त्र में ‘क्या’ और ‘क्यों’ जैसे सवालों से जूझे बल्कि ‘कैसे’ का भी जवाब तलाशे। असंभव को संभव कैसे किया जाता है, यह समझने का इसके अलावा दूसरा कोई तरीका नहीं। भारत बजट और प्रक्रियाओं से जूझता रहता है। अभी भी यहां भ्रष्टाचार इतनी बड़ी समस्या तो है ही कि वह किसी परियोजना को बेपटरी कर सके।

काम करने में ऐसी नाकामी के बीच समीक्षा वृद्धि और रोजगार के लिए निर्यात की महत्ता, बाजार में सरकर के हस्तक्षेप से होने वाले नुकसान और निजीकरण के जरिये परिसंपत्ति निर्माण जैसी बहस पर कोई भी आपा खो सकता है।

मेट्रो बनाने वाले ई श्रीधरन जैस पुराने रेलवे इंजीनियर, डीवी कपूर और वी कृष्णमूर्ति जैसे सरकारी कंपनियों के निर्माता और एम एमस स्वामीनाथन जैसे कृषि वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि कैसे मौका मिलने पर वे अंतर पैदा कर सकते हैं। भारतीय गैस प्राधिकरण के मुखिया के रूप में विनीत नैयर ने सन 1980 के दशक में एक बड़ी गैस पाइपलाइन तैयार की थी। स्वच्छ भारत और आयुष्मान भारत के प्रभारी अधिकारियों और इंदौर में स्वच्छता लाने वाले अधिकारी भले चीन का मुकाबला न कर पाएं लेकिन वे अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। शायद हमें उनके जैसे अन्य अधिकारियों को चिह्नित करना होगा और अवसर देना होगा।

भारत में अच्छी सलाह देने वालों की कमी कभी नहीं रही। समीक्षा का यह कहना सही हो सकता है कि भारत की ताजा वृद्धि दर अतिरंजित नहीं है और अगले वर्ष 6-6.5 फीसदी की दर हासिल हो सकती है।