प्रत्यक्ष कर संहिता में सुधार


ऐतिहासिक कालक्रम में जब से अर्थव्यवस्था ने आकार लेना आरंभ किया है तभी से कर-व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। आरंभिक दौर से लंबे समय तक इसका आधार कृषि रहा है। लेकिन औद्योगिक क्रांति के पश्चात धीरे-धीरे कृषि का योगदान सिमटता चला गया और उसकी क्षतिपूर्ति विनिर्माण और सेवा क्षेत्र ने की। आज के दौर में ये दोनों ही कारक विश्व की तमाम अर्थव्यवस्थाओं के निर्धारक तत्त्व बने हुए हैं और भारत भी इससे अछूता नहीं है। प्रत्येक शासनकाल में कर व्यवस्था को लेकर मूल चिंता यही रही कि आखिर इसका स्वरूप क्या हो, दर का निर्धारण कैसे हो, कितनी दर रखी जाए और फिर वसूली का तरीका सख्त हो या नरम आदि। इन तमाम सवालों के जवाब खोजना आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि इनकी उत्पत्ति के दौर में था। गौरतलब है कि वर्ष 2017 में जीएसटी के रूप में अप्रत्यक्ष कर सुधार की ओर कदम बढ़ाया गया। लेकिन अभी तक अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सके हैं। अब प्रत्यक्ष कर में सुधार का वक्त आ चुका है। इसके लिए प्रत्यक्ष कर संहिता के निर्माण की बात लंबे समय से चल रही है, लेकिन अभी तक इसे मूर्त रूप प्रदान नहीं किया जा सका है।

दरअसल, वर्तमान प्रत्यक्ष कर व्यवस्था को विनियमित करने वाले आयकर अधिनियम 1961 में विभिन्न संशोधनों के जरिये अनेक प्रावधन जोड़े-हटाए गए। इससे करदाता कर बचाने में सफल हो जाते हैं। इसके अलावा प्रावधानों की अतिव्याप्तता के कारण ही कालाधन, कर-चोरी, कर-आतंक जैसी समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं। कर व्यवस्था को अधिकाधिक डिजिटल बनाया जाए। सरकार को इसके लाभ के साथ उपस्थिति चुनौतियों को भी समय रहते दूर कर लेना चाहिए।