वर्तमान अर्थव्यवस्था: एक आकलन

वर्तमान अर्थव्यवस्था: एक आकलन


जरा इस बारे में विचार कीजिए। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को अपने दूसरे कार्यकाल में वैसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जैसे कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) को 2009 में दोबारा चुनाव जीतने के बाद करनी पड़ी थीं। अंतर केवल यह है कि मनमोहन सिंह की सरकार के समय व्यापक भ्रष्टाचार ने समस्या पैदा की थी जबकि मोदी सरकार के दौर में अर्थव्यवस्था इसकी वजह है। उस वक्त डाॅ. सिंह असहाय प्रतीत हो रहे थे और लगभग लड़खड़ा रहे थे। निजी तौर पर वह भ्रष्ट नहीं थे बल्कि वह तो इससे कोसों दूर थे। परंतु उनके साथ काम करने वालों ने उन्हें नीचा दिखाया।

मोदी के साथ भी ठीक यही बात है। छह वर्षों से सत्ता में रहने के बावजूद उन्हें अब तक इस बात का अंदाजा नहीं हो सका है कि आखिर कहां क्या गड़बड़ी है। सन 2013 तक यानी मनमोहन सिंह की सरकार के अंतिम पूर्ण वर्ष के दौरान आर्थिक मोर्चे पर बुरी खबरों के आगमन का सिलसिला शुरू हो गया था। इसका सबसे अधिक राजनीतिक फायदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया। मतदाताओं ने उनके हर वादे पर यकीन किया।

संप्रग की छवि साफ-सुथरी करने की कोशिश में डाॅ. मनमोहन सिंह ने कई जांच और दंडनात्मक कार्रवाइयों की घोषणा की। परंतु इनसे कोई मदद नहीं मिली। मोदी ने भी अर्थव्यवस्था को लेकर जल्दबाजी में ऐसी ही घोषणाएं की हैं और आगे भी करेंगे। यह तो समय ही बताएगा कि इससे कोई मदद मिलती है या नहीं।

मोदी सरकार फिलहाल इसी समस्या से जूझ रही है। आम धारणा यह है कि सरकार को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था के औद्योगिक उत्पादन में अचानक आ रही भारी गिरावट की समस्या से कैसे निपटा जाए। जीडीपी में इस की हिस्सेदारी 15 फीसदी है।

यहां तक कि जब सरकार सही कदम उठाती है तब भी सरकार की आलोचना की जाती है। निश्चित रूप से सच यह है कि सरकार ने वही कदम उठाए हैं जो अर्थशास्त्रियों तथा वृहद्, सूक्ष्म, कराधान तथा प्रशासनिक मामलों से जुड़े अन्य विशेषज्ञों ने सुझाए।

सरकार की कदम उठाने की गति भले ही निराश करने वाली हो, लेकिन उसकी दिशा गलत नहीं है। परंतु जनता का मिजाज ऐसा हो चुका है कि वह क्षमा करने के मूड में नहीं है। एक बार अगर जनता की धारणा बन गई तो सरकार जिन सीमाओं के भीतर काम कर रही है, वे केवल एक बचाव की तरह नजर आएंगी।

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार की तरह मोदी सरकार को भी ऐसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है जहां सारी गड़बड़ियां एक साथ घटित होती हैं। यह एक ऐसी नाव की तरह हो चुकी है जिसमें सैकड़ों छेद हो चुके हैं। नौका चालक दल को यह पता नहीं है कि नाव से पानी बाहर निकालना है या छेद भरने हैं।

औद्योगिक वस्तुओं की मांग में फिलहाल जो कमी आई है वह काफी हद तक ऐसी ही है। सरकार उपभोक्ताओं की मांग और निवेश पर व्यय बढ़ाने की दिशा में खूब प्रयास कर रही है लेकिन सबकुछ सही नहीं हो पा रहा है।

निश्चित तौर पर उपभोक्ताओं और निवेशकों के रूझान में आई भारी कमी के लिए सरकार का बहुत अधिक खर्च करना भी उत्तरदायी है। इसके अलावा सरकार कर राजस्व भी चाहती है। सरकार को थोड़ा सहज रहने की आवश्यकता है।

जब चीजें उस तरह नहीं घटित होतीं जैसे उन्हें होना चाहिए तब वैसी स्थिति बनती है जैसी अभी बनी हुई है। उस स्थिति में गति को धीमा करना होता है।