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हम चाइना क्यों नहीं बन पा रहे


एक फैक्ट्री मालिक की व्यथा

चीन दुनिया की फैक्ट्री है। क्या हमारे कारखाने उस क्वालिटी का और उतना माल बनाने के लिए तैयार हैं ? एक फैक्ट्री मालिक होने के नाते मेरा अनुभव यह है कि हम लोग इंजीनियरिंग और खासकर मैन्युफैक्चरिंग के मामले में दुनिया से बहुत पिछड़े हुए हैं।

अपनी फैक्ट्री में एक छोटी सी मशीन बनवाने, या किसी डाई को रिपेयर कराने के लिए मुझे जो संघर्ष करना पड़ता है, वह मुझे हैरान करता है कि हर साल करोड़ों ग्रैजुएट्स उगलने वाले इस देश के महान शिक्षा संस्थान क्यों कुछ ऐसे लोग नहीं दे पाते जो ठीक से एक डाई भी बना सकें। पिछले 20 सालों की आर्थिक तेजी में जो थोड़ा बहुत कमाल हमने दिखाया है, वह बस सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में है, मैन्युफैक्चरिंग के मामले में हम निकम्मे हैं।

क्या ऐसा इसलिए है कि भारत चिंतन करने वालों का देश रहा है। हाथ से काम करने को यहां नीची निगाह से देखा जाता है , इसलिए हमारी आबादी के सारे तेज दिमाग लोग किसी ऐसे पेशे में नहीं जाते जिसमे हाथ का काम हो। वे सिर्फ पढ़ते, सोचते हैं ! एक अमूर्त कंप्यूटर प्रोग्राम को डिकोड करना हमारे लिए अधिक आसान है बजाएं रंदा चलाकर एक लकड़ी को सीधा करने से।

हमारे सारे शिक्षा संस्थान सिर्फ सोचना सिखाते हैं, करना नहीं। ऐसे में उस चीन से हम कैसे जीतेंगे जो आठवीं क्लास पास करने के बाद ही बच्चे को सीधे ही कोई हुनर सिखाते हैं। वोकेशनल कोर्स कराते हैं। अपनी चीन यात्रा के दौरान मैंने जाना था कि चीन ने अपने हुनरमंदों की इज्जत की। उन्हें उद्यमी बनाया। दूसरी तरफ सरकार ने इनफॉरमल इकोनामी कह कर उनकी बेइज्जती की। सरकारी अफसरों ने उन्हें इतना डराया धमकाया कि वे बड़े होने से डरने लगे।

हमारे देश में परंपरा से जो हुनरमंद आते हैं उनकी कद्र बड़ी इंजीनियरिंग इंडस्ट्रीज़ ने भी नहीं की। सिर्फ इसलिए क्योंकि ये हुनरमंद एक अलग भाषा में बात करते हैं। उनकी शब्दावली उनकी दुनिया की है। इसलिए हमारे यहां ये दोनों दुनियाऐं अलग अलग समानांतर चलती रहीं और एक दूसरे को कोई फायदा नहीं पहुंचा पााईं। अगर पढ़े -लिखे इंजीनियर अपना अहंकार छोड़ कर इन दोनों दुनियाओं के बीच में पुल बनाने की कोशिश करते तो आज हम मैन्युफैक्चरिंग के मामले में इतने पिछड़े ना होते।

अब आइए जिसे हम डेमोग्राफिक डिविडेंड मानकर इतराते हैं, उसकी पड़ताल करें।

बेशक हमारे युवा संख्या में बहुत हैं, पर एक बार उनकी क्वालिटी पर भी नजर डालिये। स्कूल कालेजों से कच्ची पक्की परीक्षाएं पास किए यह लोग अब खेती करने में बेइज्जती महसूस करते हैं, पर उनके पास ऐसा कोई ज्ञान या हुनर नहीं है जो फैक्ट्रियों के काम का हो। बारहवीं पास बच्चा किराने की दुकान पर सामान का हिसाब भी ठीक से नहीं जोड़ सकता। हमारे स्कूलों के पाठ्यक्रमों में ऐसा कुछ नहीं है जो बाजार के काम का हो।

चीन से बराबरी करने का सपना देखने वालों को वहां काम करने वाली महिलाओं की संख्या भी देखना चाहिए। हमने देश की 50% आबादी को बेकार घर पर बिठा रखा है। पिछले कुछ सालों की कालेजों की मेरिट लिस्ट उठा कर देखिए। ज्यादातर गोल्ड मेडल लड़कियों ने हासिल किये हैं। वे लड़कियां दफ्तरों दुकानों में क्यों दिखाई नहीं देतीं ? जो समाज इन गोल्ड मेडलों को बैंगल बॉक्स की मखमली कब्रगाहों में दफन कर देता हो उसे डेमोग्राफिक डिविडेंड की बात करने का क्या हक है ?

मगर सरकार की आर्थिक नीतियों के आधार जीडीपी की ग्रोथ का अंदाज़ा लगाने वाला समाज अपनी बुराइयों पर बात करना नहीं चाहता। तरक्की का सारा जिम्मा हमने फाइनेंस मिनिस्टर पर ही डाल रखा है ?

चीन से बराबरी के सपने देखता समाज चीन की कार्य संस्कृति को क्यों नहीं देखता ? हमारे कारखानों में कामगारों के साल के औसत कार्य दिवस दुनिया के मुकाबले बहुत कम हैं। व्रत, उपवास, शादी ब्याह, त्यौहार , भोजन भंडारे का एक लगातार सिलसिला है जो हमारे लिए काम से ज़्यादा बड़ी प्राथमिकता है।

होली दिवाली, ईद, शादी ब्याह का मौसम, हमारे फैक्ट्री मैनेजर और कंस्ट्रक्शन साइट के सुपरवाइजरों के लिए डरावने ख्वाब की तरह आते हैं इन सब का मतलब होता है हफ्तों के लिए काम बन्द। भले ही कितने ही जरूरी आर्डर पेंडिंग पड़े रहें।

कारपोरेट के हमारे मैनेजर इंनइफिशिएंट हैं। हमने मैनेजर बनने की एकमात्र योग्यता टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलना बना रखी है। ज्यादातर मैनेजर बस यही एक काम जानते हैं, वह भी ठीक से नहीं। कनेक्टिंग फ्लाइट पकड़ने को अपने व्यस्त रहने का प्रमाण मानते, फाइव स्टार होटलों में बेतुके प्रेजेंटेशन करते ये मैनेजर दुनिया मे हो रहे बदलावों के बारे में कुछ नहीं जानते।

ज्यादातर कारपोरेट मैनेजर बस एक दूसरे को रिपोर्ट देने का काम करते हैं, जिसमें कोई काम की बात नहीं होती। सरकारी* तंत्र की जिन बुराइयों से घबरा कर हम प्राइवेट कारपोरेट की शरण में आए थे, अब वह भी उसी भ्रष्टाचार और अक्षमता के शिकार हो गए हैं। वे रिश्वत नहीं लेते, पर मोटी तनख्वाह लेकर बस एक दूसरे के ईगो को सहलाना, जिम्मेदारी से भागना, निर्णय न ले पाना भी एक किस्म का भ्रष्टाचार है। यह बात मैं किसी किताब में पढ़कर नहीं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कहता हूं।

आप सोचेंगे यदि भारतीय समाज में इतनी बुराइयां हैं तो फिर 20 -30 सालों में हमने इतनी तरक्की कैसे की है ???

मेरे विचार में इसकी एक बड़ी वजह है ज़मीन का पैसा। 1991 में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक सुधार लागू किए। उससे विदेशी निवेश आया, फिर अटल सरकार ने बड़े राजमार्ग बनाए, होमलोन सस्ते हुए। इन वजहों से जमीन के दामों में बहुत बड़ा उछाल आया। इसने बड़ी मात्रा में काला धन पैदा किया। यह धन किसी मेहनत या हुनर से कमाया हुआ धन नहीं था। यह जमीन के सट्टे की फसल थी।

इस काले धन ने जो डिमांड पैदा की उसके लिए हमारी सप्लाई साइड तैयार नहीं थी। क्योंकि उसके पहले के 20- 25 साल देश में मंदी की वजह से नई फैक्ट्रीयां, नए कारोबार उस तादाद में नहीं लग पाए थे। रातों रात नई फैक्ट्रियां लगना संभव नहीं थी, इसलिये सप्लाई साइड की इनएफिशिएंसी के बावजूद बाजार उछलता रहा।

बाप दादाओं के खेत बेचकर स्कॉर्पियो खरीदने वाला एक नया वर्ग पैदा हुआ। विदेश यात्राएं, होटलिंग, महंगा इंटीरियर डेकोरेशन, बड़ी कारें, नए मॉडल के मोबाइल। पान ठेलों पर दिन काटने वाले आवारा लड़के जब जमीनों की दलाली में धनकुबेर बने, तो इन नये पीरों को अपने जैसे मुरीद चाहिए थे। उन्होंने आलीशान बंगले बनाए, जिनके बाथरूम में पचास हज़ार का एक नल लगाने को आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाइनर्स ने कला का नाम दिया और बाल बढ़ा कर खुद को विंची और पिकासो के समकक्ष घोषित कर दिया।

आर्किटेक्टस के ऑफिस के बाहर ठेकेदार और कंपनियों के सेल्समैन लाइन लगाकर मंगल गीत गाते रहे, ताकि वे अपने देवत्व को भूलकर कहीं गरीबों के लिए अच्छे और सस्ते मकान बनाने की तकनीक ना खोजने में लग जाएं।

पिछले 20 सालों में हमारे डिजाइनर, इंजीनियर और उद्यमियों की ऊर्जा और समय इस आवारा पूंजी की अश्लील चाकरी में बीता।

अपने देश की परिस्थितियों और गरीबी के हिसाब से कोई नयी सस्ता मकान या अन्य कोई तकनीक ढूंढ़ने में किसी का ध्यान नहीं था। एक पार्टी चल रही थी किसी ने यह नहीं सोचा इस दौरान कुछ ऐसा किया जाए कि पार्टी खत्म ना हो।

कोरोना इस तरह से वरदान है कि ईजी मनी के नशे में ग़ाफ़िल हमारे देश की प्रतिभाओं को शायद यह नींद से जगा दे। मजबूरी में ही सही हम अपने कंफर्ट जोन से बाहर आएं।

शायद हम सोचें कि ऑपरेशनल एफिशिएंसी क्या है ? कि मुंह बनाकर अंग्रेजी बोलना सिर्फ भाषाई योग्यता है, तरक्की के लिए मेहनत भी करना होती है।

शायद हम सीखें कि ‘आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग’ का मुहावरा किसी कॉरपोरेट कांफ्रेंस में तालियां हासिल कर भूल जाने के लिए नहीं है, अब वह जिंदा बचे रहने की तरकीब है। शायद हमें एहसास हो कि धर्म और जाति नहीं गरीबी और भुखमरी अधिक महत्वपूर्ण है। और इस वक्त हमें एक दूसरे का हाथ पकड़कर इस मुसीबत से पार पाना है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब दुनिया ने जर्मनी का बहिष्कार कर दिया, तब वहां के इंजीनियरों ने लगभग हर मामले में अपने देश को आत्मनिर्भर बना लिया।

हर आपदा हमें झकझोरती है, हमें कंफर्ट जोन से निकालती है। कोरोना में यदि कुछ अच्छा है तो बस यही है।

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