Editorial
- January 17, 2020
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The gross domestic product (GDP) growth numbers for the July-September quarter, the lowest in 26 quarters, are no surprise. Most analysts had already forecasted the bad news. It is now clear that if the government does not get its act together by Budget day, two months from now, a quick recovery from the current depths should not be expected. The economy is on a cusp from where it can swing either way.
Many analysts are getting pleasure on Modi government’s mounting economic problems. But critics will have to address the question: What should the government do? The global slowdown is not the primary cause of India’s problems, or the gap with China’s growth numbers (6 per cent for the same July-September quarter) would not have risen as it has. Nor would Bangladesh be growing at more than 7 per cent. Next, there is no point quibbling about whether this is just a slowdown or a full-blown recession. When growth drops precipitously from 7.0 per cent to 4.5 per cent in four quarters, it is for all practical purposes a recession.
Don’t expect the quick turnaround that many analysts were forecasting. The current quarter’s numbers may be no better than the last one’s if one goes by the story in the steady trickle of data, and the full year will see the slowest growth since Narendra Modi came to power on the promise of double-digit growth and achchhe din (good days). The government has so far been the fastest-growing part of the economy. But with the deficit target for the full year having been crossed in seven months, this cannot continue. The Index of Industrial Production continues to bear grim tidings, as do the output numbers on the core sector. Electricity consumption has slumped, diesel consumption is going nowhere, the trade numbers point to shrinkage, and manufacturing continues to stagnate or fall across key sectors. There is no good news on either the consumption or industrial front.
While we wait for some of these cyclical factors to play themselves out to a receding horizon that stretches now to three or four quarters into the future, deeper structural issues wait to be addressed. Agriculture has to deal with the fundamental issue of poor productivity and inadequate domestic demand (in part a result of stagnant rural wages). The government’s tax revenue base is shot through with holes, and no one seems to know how to fix the good and simple tax’s problems. The strength of services exports keeps the rupee pegged at a level at which manufacturing exporters find themselves unable to compete in export markets. Reform of the public sector is a coat that hangs yet again on the peg of what happens to the employees of unviable firms. Finally, as one business leader after another capitulates — from an Ambani to a Ruia, and from a Thapar to a Subhash Chandra — the capacity of India’s famed entrepreneurs to lead a growth charge is increasingly in question.
The best advice one can give is that this is a crisis that should not be wasted. The Modi government has acted so far as though it can ignore the bad economic news and coast along on its political and social agendas. It would be a pity if it continued to do that. A crisis is when a government can expect people to make some sacrifices for the larger good. The most important step would be government should gave clear views that it can publicize.
The style of economy scanning from 70 year can’t be changed immediately but one who have changed and are changing should not be disappointed. That may lead towards returning to old style back again. This frustration would be very fatal.
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि दर पिछली 26 तिमाहियों में न्यूनतम स्तर पर है। यह बात चैंकाती नहीं क्योंकि अधिकांश विश्लेषकों ने पहले ही बुरी खबर की आशंका जता दी थी। यह स्पष्ट है कि यदि सरकार बजट तक हालात को संभालती नहीं है तो जल्द सुधार की आशा त्यागनी होगी। अर्थव्यवस्था ऐसे मोड़ पर है जहां से यह किसी भी दिशा में जा सकती है।
अनेक विश्लेषकों को मोदी सरकार की बढ़ती आर्थिक दिक्कतों में परपीड़ा का आनंद आ रहा है। परंतु इससे आगे देखें तो आलोचकों को भी यह बताना होगा कि सरकार को क्या करना चाहिए? देश की समस्याओं की प्राथमिक वजह वैश्विक मंदी नहीं है। इस बहस का भी कोई अर्थ नहीं है कि यह केवल धीमापन है या वाकई पूरी तरह मंदी आ गई है। जब चार तिमाहियों में वृद्धि दर 7 फीसदी से घटकर 4.5 फीसदी हो जाए तो यह मंदी ही है।
विश्लेषक हाल तक कर रहे थे कि हालात में जल्द सुधार आ सकता है लेकिन इसकी आशा मत कीजिए। आंकड़ों की पड़ताल की जाए तो मौजूदा तिमाही के आंकड़े पिछली से कतई बेहतर नहीं हैं और पूरे वर्ष के दौरान वृद्धि दर का स्तर मोदी के सत्ता में आने के बाद से सबसे धीमा रहने वाला है। याद रहे वह दो अंको की वृद्धि और अच्छे दिन के वादे के साथ सत्ता में आए थे। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक लगातार निराश कर रहा है। मूलभूत क्षेत्रों के उत्पादन आंकड़ों का भी यही हाल है। बिजली खपत कम हुई है, डीजल खपत का भी यही हाल है, व्यापारिक आंकड़े गिर रहे हैं और विनिर्माण या तो स्थिर है या गिर रहा है। खपत या औद्योगिक मोर्चे पर कोई अच्छी खबर नहीं है।
ऋण के बट्टे खाते जाने की गति बढ़ी है। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के ऋण प्रवाह में भारी गिरावट आई है।
हमें अगले तीन-चार महीने की अवधि के दौरान इन चक्रीय कारकों के असर करने की अपेक्षा करनी होगी लेकिन इस बीच गहन ढांचागत मसलों को हल करने की आवश्यकता है। कृषि क्षेत्र में खराब उत्पादकता और अपर्याप्त घरेलू मांग की बुनियादी दिक्कत बनी हुई है। इसके लिए कुछ हद तक ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आय का न बढ़ना भी वजह है। सरकार का कर राजस्व आधार दिक्कतों से भरा है और किसी को पता नहीं कि कर क्षेत्र की दिक्कतों को कैसे दूर किया जाए। सेवा निर्यात की मजबूती की वजह से रुपया ऐसे स्तर पर है जहां विनिर्माण निर्यातक निर्यात बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं। सरकारी क्षेत्र में सुधार की बात करें तो वहां नाकाम हो रही कंपनियों के कर्मचारियों को लेकर मामला अटकता है। अंबानी से रुइया तक और थापर से सुभाष चंद्रा तक एक के बाद एक कारोबारी जिस तरह हथियार डाल रहे हैं उससे देश के नामी उद्यमियों के वृद्धि का वाहक बनने की क्षमता पर ही सवाल खड़े हो गए हैं।
ऐसे में सबसे अच्छी सलाह यही हो सकती है कि यह एक ऐसा संकट है जिसे गंवाया नहीं जाना चाहिए। मोदी सरकार का अब तक का व्यवहार ऐसा रहा है मानो वह आर्थिक मोर्चे पर बुरी खबरों की अनदेखी कर रही है और अपने राजनीतिक और सामाजिक एजेंडों के साथ आगे बढ़ रही है। आगे ऐसा जारी नहीं रह सकता। संकटकाल में सरकार लोगों से अपेक्षा कर सकती है कि वे व्यापक हित में कुछ बलिदान करें। लेकिन इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी होगा कि सरकार के पास स्पश्ट राह हो जो कि वह सार्वजनिक करे।
एक अहम् पहलू यह है कि सत्तर सालों से चल रही अर्थव्यवस्था के तौर तरीके बदलने में सभी एकदम से तो तैयार नहीं हो जाते। और जो हो जाते हैं वो भी अगर बाद में (जो कि हुआ भी है) दुसरे कर वंचकों की कार्य प्रणाली से दुःखी (निराश) होकर वापस पुराने ढर्रे पर जाने को मन बनाने लगें। यह निराशा बहुत ही घातक होगी।
सुरेश बाहेती
9896436666