पूंजीवाद बनाम साम्यवाद
- जनवरी 3, 2020
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पूंजीवाद बनाम साम्यवाद
भोजन से भूख कभी भी शांत नहीं हो सकती, बल्कि भोजन से तो भूख और बढ़ेगी ही। न भूख लगे और न भोजन की जरूरत ही महसूस हो। अर्थात् भोजन की आवश्यकता से उपर उठने की आवश्यकता है।
लेकिन आज की दुनिया में संतोष के लिए कोई जगह नहीं है। आज की दुनिया में संपत्ति और अर्थशास्त्र आधारित दो विचारधाराओं का वर्चस्व है। मोटे तौर पर यह विचारधाराएं हैं पूंजीवाद और सामवाद। पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों का लक्ष्य एक ही है, ऐसी दुनिया बनाना जिसमें आनंद ही आनंद हो। दोनों आनंद का स्त्रोत संपत्ति को मानते हैं, हालांकि दोनों के नजरिये और एप्रोच में व्यापक अंतर है।
पूंजीवाद के अनुसार अधिक संपत्ति का निर्माण करने से समाज में आनंद का निर्माण होगा। सामवाद संपत्ति के बेहतर वितरण में विश्वास रखता है। पूंजीवाद चाहता है कि लोग खुद का कारोबार शुरू करें, जबकि साम्यवाद चाहता है कि संपत्ति पर सरकार का नियंत्रण हो और वही आम लोगों में इसका बंटवारा करे। स्वतंत्र भारत के शुरूआती कुछ दशकों में समाजवाद का प्रभाव था। अब यह देश पूरी तरह से पूंजीवाद पर आधारित है। दोनों प्रणालियां पूरी तरह से आनंद नहीं ला पाईं और निकट के भविष्य में भी इन दोनों विचारधाराओं के पास इस बात की कोई पुख्ता योजना या सुझाव नहीं है कि आनंद कैसे ला सकते हैं। पूंजीपति डरते हैं कि यदि लोग संतुष्ट होने लगे तो बाजार नश्ट हो जाएगा और नए ग्राहकों का निर्माण नहीं होगा। साम्यवादी भी संतुष्टि की धारणा पर शक करते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि यह धारणा अमीरों का प्रोपेगेंडा है, यह निश्चित करने के लिए कि गरीब हमेशा गरीब बना रहे और अपने अधिकारों से वंचित रहे।
आधुनिक प्रबंधन केवल ‘विकास’ पर ध्यान देता है। लेकिन सब केवल भौतिक विकास की बात करते हैं। पारंपरिक सोच भी विकास का प्रचार करती है। बौद्धिक और भावनात्मक विकास होने पर इंसान अपने पास की संपत्ति से संतुष्ट होता है और उस संपत्ति को दूसरों के साथ बांटना भी शुरू करता है। वह अपनी समृद्धि में दूसरों को शामिल करने लगता है। ऐसी स्थिति में विकास दूसरों को हानि पहुंचाकर नहीं, बल्कि सबके भले के लिए होता है। जब ऐसा होता है, तो साम्यवादी क्रांति या काॅर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की आवश्यकता नहीं होती। सामाजिक पिरामिड में संपत्ति बड़ी सहजता से घूमने लगती है।
बौद्धिक और भावनात्मक विकास आध्यात्मिकता की दो शाखाएं हैं। दुर्भाग्यवश पूंजीपति और साम्यवादी दोनों आध्यात्मिकता को खतरनाक और अव्यावहारिक मानते हैं। इस लापरवाही के कारण आज दुनिया की 80 फीसदी दौलत दुनिया के केवल 20 फीसदी लोगों के हाथों में है और नए नियमों, नीतियों और कानूनों से भी यह समीकरण बदलने नहीं वाला। यह इसलिए कि फिलहाल पूंजीवाद और साम्यवाद के संपूर्ण पिरामिड में बौद्धिकता और भावनात्मकता का अभाव है।