Naresh Tiwari
- November 16, 2020
- 0
श्री नरेश तिवारी
अध्यक्ष
आल इंडिया प्लाईवुड
मैंनुफेक्चरर्स एसोसिएशन
Chairman
All India Plywood
Manufacturers Association
“संस्थान के पास है तो बहुत कुछ
लेकिन उद्योग तक पहुंच नहीं रहा”
यह इस तरह का शेर है, जो पिंजरे में बंद है, क्योंकि उन्हें हर काम के लिए मंत्रालय से इजाजत लेनी पड़ती है।
IPIRTI – भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (बेंगलुरु) को केंद्र सरकार से मिलने वाले फंड को तीन साल के भीतर बंद करने की योजना है। सरकार के इस विचार से प्लाइवुड उद्योगों में हड़कंप मंचा हुआ है। माना यही जा रहा है कि संस्थान को यदि सरकारी मदद नहीं मिलती तो इसका असर उद्योगों पर आएगा। क्योंकि संस्थान से प्लाइवुड उद्योग को खासी उम्मीदें हैं। इसी को लेकर AIPMA – ऑल इंडिया प्लाइउड मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष श्री नरेश तिवारी से द प्लाई इनसाइट की बेबाक बातचीत ।
भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान के फंड को सरकार बंद करने जा रही है, आपका क्या मानना है?
इससे पहले यह देखना होगा कि इस संस्थान की प्लाइउड उद्योग में पहुंच कितनी है? पिछले कुछ साल से तो यहां से उद्योगों को कोई खास मदद नहीं मिल रही है। उत्पादक चीन से टैक्नोलॉजी लेकर आए। हां यह सही है कि संस्थान का प्लाइवुड उद्योग के विकास में काफी बड़ी भूमिका रही है। इनके पास ग्यान का खजाना है। बेहतर रिसर्च है। लेकिन इसे उद्योगों तक नहीं पहुंचाया जा रहा है। इसकी वजह यह है कि संस्थान को कुछ भी करने से पहले मिनिस्ट्री ऑफ पर्यावरण एंड फॉरेस्ट से इजाजत लेनी पड़ती है। संस्थान का उद्योगों के साथ संपर्क कम होता गया। इस तरह से धीरे धीरे उद्योगपतियों ने भी संस्थान को भूलना शुरू कर दिया है। संस्थान के वैज्ञानिकों में नालेज बहुत है, लेकिन उनकी नालेज का सही से इस्तेमाल नहीं हो रहा है। संस्थान के वैज्ञानिक न सेमिनार कर पा रहे हैं, न ही उद्योगों के साथ तालमेल बना पा रहे हैं। क्योंकि संस्थान के निदेशक को इस तरह का कोई भी काम करने से पहले मिनिस्ट्री से इजाजत लेनी पड़ती है। वहां से इजाजत सहज नहीं मिलती। इसलिए वह कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
थर्ड पार्टी इंस्पेक्शन के लिए आईएसओ सर्टिफिकेशन कराना था, लेकिन संस्थान आईएसओ सर्टिफिकेशन तक नहीं करा पाए। यह बहुत ही छोटा काम है।
संस्थान का संचालन निजी हाथों में आने से क्या उद्योग के लिए ठीक होगा
उद्योगपतियों को तुरंत ही संस्थान से मदद मिलने की आवश्यकता है। अभी तो होता यह है कि यदि संस्थान से कोई मदद चाहिए तो वह सरकारी औपचारिकताओं में फँस कर रह जाती है। जबकि उद्योगपतियों के पास इतना समय नहीं होता। क्योंकि उद्योग को तुरंत ही सर्विस चाहिए। निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने से तुरंत मदद मिलनी आसान हो जाएगी। मूल बात यह है कि संस्थान का ग्यान और ऊर्जा उद्योग के विकास में सहायक हो।
क्या ऐसा नहीं है कि जो नए उद्योगपति बाजार में आ रहे हैं, उन्हें संस्थान के बारे में ज्यादा जानकारी है ही नहीं
ऐसा है किसी नयी खोज की भी मार्केटिंग करनी होती है। हमारे पास यह है, लोगों का बताना होता है। जब कोई मार्केटिंग ही नहीं करेगा तो किसी को इस बारे में पता कैसे चलेगा? दस हजार रुपए सदस्यता फीस रखी गयी है। उद्योगपतियों के लिए यह फीस ज्यादा मायने नहीं रखती। लेकिन दिक्कत यह है कि संस्थान उद्योगपतियों के साथ तालमेल बनाने में विफल रहा है।प्लाइवुड की इतनी बड़ी इंडस्ट्री है, लेकिन शायद ही कभी कोई संस्थान के मुख्यालय या शाखा में भ्रमन के लिए जाता हो।
सवाल यह है कि यदि संस्थान से सरकारी सहायता बंद कर दी जाती है , तो उद्योग और संस्थान के लिए फायदा होगा?
अगर इसका निजी-सार्वजनिक मिश्रीत व्यवस्था बनाया जाता है तो उद्योग इसका अपनी तरह से इस्तेमाल कर सकेंगे। फिलहाल इनका सरकारी करण है। जो कि औपचारिकताओं में फंस जाते हैं। संस्थान की मोहाली शाखा का ही उदाहरण लें, तो यहां से कोई ज्यादा लाभ उद्योगपतियों को नहीं मिल पाया। इनके पास तकनीक है। विदेश से बेहतर तकनीक है। लेकिन इसका लाभ नहीं मिल रहा। इसका यह मतलब यह है कि संस्थान की उपयोगिता बहुत है, लेकिन यह उद्योग तक पहुंच नहीं पा रही है।
तीन साल का जो समय दिया गया, उसमें क्या कर सकते हैं ?
तीन साल का समय इनके पास है। इन्हें अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करना होगा। हम भी मदद करेंगे। सदस्यता बढ़वाएंगे। हम भारत के उद्योगपति सक्षम है, इस संस्थान को चलाने के लिए। आल इंडिया प्लाइवुड मेन्यूफेक्चर्रस एसोसिएशन इसके लिए काम करेगी। लेकिन शर्त यह है कि इसके लिए संस्थान को भी आगे आना होगा। होना यह चाहिए कि संस्थान उद्योगपतियों की सलाह से चले। हालांकि अभी हम यह निर्णय नहीं ले सकते कि संस्थान को एसोसिएशन चलाए। इसके लिए सभी से सलाह करनी होगी।
सात साल पहले भी इसे बंद करने का निर्णय लिया था। जब हमने मिनिस्ट्री से आग्रह किया था। उन्हें बताया था कि एग्रो फाॅरेस्ट्री के लिए संस्थान बेहद जरूरी है। अब देखना यह है कि हो सकता है इस बार भी सरकार इस निर्णय को टाल दें। होना तो यह चाहिए कि संस्थान उद्योगों को ध्यान में रख कर काम करें। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सरकार इसकी फंडिंग ही बंद कर दें। क्योंकि संस्थान को सरकारी मदद बेहद जरूरी है।
तो इस व्यवस्था में क्या बदलाव होने चाहिए
निश्चित ही बदलाव होना चाहिए। लेकिन सबसे पहले तो लक्ष्य क्लियर होना चाहिए। हमने उन्हें सलाह दी कि थी कि तीन चार वैज्ञानिक दे दो, वह पंजाब व हरियाणा में कार्यक्रम करें। इससे होगा यह कि यहां से उन्हें सदस्यता मिलेगी। इसके बाद बड़ा सेमिनार हो सकता है। इसमें दो सौ से ढाई सौ उद्योगपति आ सकते हैं। लेकिन किसी वजह से यह योजना सिरे नहीं चढ़ी। इस तरह से नहीं होना चाहिए। संस्थान को अपने काम करने के तरीके में व्यवहारिक बदलाव करना होगा। उनके पास तकनीक है, लेकिन उनकी तकनीक को कोई नहीं ले रहा है। क्योंकि इस बारे में उद्योगपतियों को पता ही नहीं है।
निष्कर्ष यह निकल रहा है कि उद्योगपति चाहते हैं कि संस्थान को सरकारी मदद तो मिले। लेकिन संस्थान उद्योग को ध्यान में रख कर काम करें। इससे उद्योग और देश का बड़ा फायदा हो सकता है। संस्थान को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की जरुरत है, न कि केंद्र सरकार संस्थान को जो मदद दे रही है, वह बंद कर दी जाए। इस मदद को बंद नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा होता है तो इससे न सिर्फ उद्योग का नुकसान होगा बल्कि एग्रोफाॅरेस्ट्री के लिए भी यह कदम सही नहीं होगा। और आगे चलकर प्रर्यावरण का भी नुक्सान होगा।