Market expectations from the Monetary policy Committee (MPC) of the Reserve Bank of India (RBI) have changed dramatically over the past few weeks. The rate-setting committee increased the policy repo rate by 40 basis points in an off-cycle meeting in May, which was a clear attempt to make up for the lost time. As several commentators have argued, the central bank is behind the curve in withdrawing monetary accommodation.

The inflation rate based on the consumer price index (CPI) inched up to 7.78 per cent in April- nearly an eight-year high. Meanwhile, wholesale price index(WPI) inflation is in double digits for over a year. Although the RBI is mandated to target CPI inflation, sustained double-digit WPI inflation indicates the kind of price pressure the economy is facing.

Given the inflation condition, the MPC has raised  the policy rate by 50 basis points. The minutes of the May policy meeting and communication from the RBI show that it has shifted focus to containing inflation. It is likely that more than 100 basis points of rate increase would need to be carried out soon.

While war-related inflationary pressures accentuated …it may necessitate a much stronger action in the June MPC. The global economy is expected to slow further, partly because of the monetary policy response to contain inflation. Monetary action in the coming months will depend on the expected inflation outcomes. Several economists in the private sector expect the inflation rate to remain above the tolerance band in the current year.

A sharp increase in interest rates could affect the ongoing economic recovery. The latest numbers showed that the Indian economy has barely crossed the pre-pandemic level of real output on an annual basis. However, the RBI is now left with very little choice after underestimating inflationary pressures for a while. From a medium- to long-term perspective, it is important to maintain price stability. Ignoring inflation for too long can increase risks for macroeconomic stability and damage longer- term growth prospects.


रीपो दरों में इजाफा


भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) से बाजार की उम्मीदें बीते कुछ सप्ताह में नाटकीय ढंग से बदली हैं. दरें तय करने वाली इस समिति ने मई में एक अनियमित बैठक में नीतिगत रीपो दर में 40 आधार अंको का इजाफा किया था. उसकी यह कोशिश साफ तौर पर गंवाए हुए समय की भरपाई करने की थी. जैसा की कई टीकाकारों ने कहा भी है, केंद्रीय बैंक मौद्रिक समायोजन समाप्त करने के मामले में अपेक्षित समय से पीछे चल रहा है.

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अप्रैल में 7.8 फीसदी तक पहुंच गई जो लगभग आठ वर्षो का उच्चतम स्तर था. इस बीच थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति एक वर्ष से अधिक समय से दो अंको में बनी हुई है.यह सही है कि आरबीआई खुदरा मुद्रास्फीति को लक्षित करता है लेकिन थोक मूल्य मुद्रास्फीति का लगातार दो अंको में बने रहना बताता है कि अर्थव्यवस्था कीमतों के मामले में दबाव में है.

मुद्रास्फीति की स्थिति को देखते हुए एमपीसी ने नीतिगत दरों में 50 आधार अंको का इजाफा किया है। मई की नीतिगत बैठक के सार और आरबीआई से प्राप्त सुचना यही दिखाते है कि उसने अपना ध्यान मुद्रास्फीति से निपटने पर केंद्रित कर दिया है. हो सकता है कि जल्दी ही दरों में 100 आधार अंक से अधिक का इजाफा होगा।

मुद्रास्फीतिक दबाव लगातार मजबूत हो रहा है और ऐसे में जून की एमपीसी में और कड़े कदमों की जरूरत पड़ सकती है. वैश्विक अर्थव्यवस्था के बारे में अनुमान है कि उसमे आगे और मंदी आएगी। ऐसा आंशिक तौर पर मुद्रास्फीति को थामने की मौद्रिक नीति संबंधी प्रतिक्रिया की वजह से हो सकता है. आने वाले महीनो के मौद्रिक कदम मुद्रास्फीतिक अनुमान पर आधारित होंगे। निजी क्षेत्र के कई अर्थशास्त्री मान रहे है कि मुद्रास्फीति की दर चालू वर्ष में तय दायरे से ऊपर रहेगी।

ब्याज दरों में तेज इजाफा मौजूद आर्थिक सुधार को प्रभावित कर सकता है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक अर्थव्यवस्था सालाना आधार पर वास्तविक उत्पादन के मामले में बमुश्किल महामारी के पहले के स्तर तक पहुंची है. बहरहाल आरबीआई के पास अब ज्यादा विकल्प नहीं है। मध्यम से दीर्घावधि के नजरिये से देखे तो मूल्य स्थिरता कायम करना अहम है. लंबे समय तक मुद्रास्फीति की अनदेखी से वृहद आर्थिक स्थिरता को जोखिम पैदा हो सकता है तथा दीर्घावधि की वृद्धि संभावनाओं को झटका लग सकता है.


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