केंद्र सरकार भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान
- नवम्बर 16, 2020
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केंद्र सरकार भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान और प्रषिक्षण संस्थान (बेंगलुरु) समेत पांच संस्थानों को तीन साल में सरकारी सहायता बंद करेगी
पर्यावरण और वन मंत्रालय के अधीन आने वाले इन पांचों संस्थान में पहले साल कम होगा, 25 प्रतिशत बजट
योजना: डिम्ड युनिवर्सिटी या स्वायत्त संस्थान बनाए जाएंगे, बजट भी जुटाना होगा स्वयं
केंद्र सरकार ने योजना बनायी है कि भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (बेंगलुरु)भारतीय वन प्रबंधन संस्थान (भोपाल),भारतीय वन्यजीव संस्थान (देहरादून) सीपीआर पर्यावरण शिक्षा केंद्र (चेन्नई) और पर्यावरण शिक्षा केंद्र (अहमदाबाद) को केंद्र से मिलने वाला बजट तीन साल के भीतर खत्म कर दिया जाएगा। पहले साल 25 प्रतिशत बजट कम होगा। तीन साल के भीतर बजट कम करने की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी।
वन मंत्रालय के संयुक्त सचिव (कैबिनेट) आशुतोष जिंदल ने बताया कि इन सभी पांचों संस्थानों को मिलने वाली मदद को दो चरणों में बंद किया जाएगा। इसके लिए तीन साल के भीतर संस्थानों को मिलने वाली सरकारी मदद बंद करना शामिल है। इसके साथ ही संस्थानों से सरकारी नियंत्रण खत्म कर संस्थान का सारा प्रबंधन वहीं की मैनेजमेंट को सौंपा जाएगा। संस्थानों को या तो उद्योग चलाएंगे या फिर इन संस्थानों से जो लाभ उठा रहे हैं, वह इनका संचालन करेंगे।
भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (बेंगलुरु) की स्थापना 1962 में मैसूर राज्य अधिनियम के तहत कोआपरेटिव सोसायटी के रूप में हुई थी। इसका उद्देश्य यही था कि प्लाईवुड उद्योग के लिए नई तकनीक खोजी जाए, जिससे उद्योग को लाभ मिले। लगभग 1989 तक उद्योग घरानों ने इस संस्थान को चलाया। बाद में इसे केंद्र सरकार ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अंडर कर दिया। तब से केंद्र सरकार इस संस्थान को चलाने के लिए वित्तिय मदद दे रही है। यहीं वजह है कि भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (बेंगलुरु) से उद्योग को मिलने वाली कई सेवाओं पर सब्सिडी भी मिलती है। अब फिर से केंद्र सरकार की योजना है कि यह संस्थान फाइनेंस के मामले में अपने पूराने मॉडल पर चले।
प्लाईवुड उद्योग विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार का यह प्रयोग सही नहीं है। उनका कहना है कि भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (बेंगलुरु) की स्थापना भले ही एक कोआपरेटिव सोसायटी के तौर पर हुई थी। लेकिन तब की परिस्थियां पूरी तरह से अलग थी। उस वक्त प्लाइवुड उद्योग एक तरह से संगठित उद्योग था। अब स्थिति पूरी तरह से बदल गयी है। अब उद्योग की ज्यादातर इकाई असंगठित है। ऐसे में कैसे संस्थान का खर्च यह इकाई बर्दाश्त कर सकती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि असली चिंता संस्थान के खर्च को लेकर है। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को संस्थान की फंडिंग बंद नहीं करनी चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो यह इंडस्ट्री के लिए एक बड़ा झटका साबित हो सकता है। वह भी उस वक्त जब देश स्वदेशी की ओर जा रहा है। यदि हमें आत्मनिर्भर भारत बनाना है तो निश्चित ही इस तरह के संस्थानों को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए सरकारी फंडिंग बड़ा माध्मय बनता है।
सरकार के इस निर्णय पर पर्यावरणविदों ने गहरी चिंता व्यक्त की है। पर्यावरणविद भीम सिंह रावत ने कहा कि सरकार अपनी ड्यूटी से भाग रही है। हर संस्थान को निजी हाथों में नहीं सौंपा जा सकता। यह सरकार का गलत निर्णय है।
बहरहाल सरकार का निर्णय इसलिए भी सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि एक ओर तो हम पर्यावरण संरक्षण की बात कर रहे हैं। दूसरी ओर सरकार जिन पांच संस्थान का फंड बंद करने जा रही है, यह सभी संस्थान पर्यावरण से जुड़े हुए हैं।
होना तो यह चाहिए कि प्लाईवुड उद्योग के लिए सरकार कल्याणकारी कदम उठाए। इससे एग्रोफॉरेस्ट्री को बढ़ावा मिलेगा। ऐसा होने से पर्यावरण संरक्षण भी ऑटोमोड पर हो सकता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि इन संस्थानों की फंडिंग बंद करने की बजाय, इनको दिया जाने वाला फंड बढ़ाए। यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि संस्थान अब और ज्यादा इनोवेटिव आइडिया लेकर आए। जिससे प्लाइवुड उद्योग विकास की नई उंचाइ को छू सके।