पंजाब विधानसभा द्वारा कृषि अध्यादेशों का विरोध
- अक्टूबर 23, 2020
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पंजाब विधानसभा में विभिन्न राजनीतिक दलों ने राज्य की ताकतवर आढ़तिया लाॅबी और बड़े किसानों को एक कड़ा संदेश दिया है। संसद में पिछले महीने पारित तीन कृषि कानूनों को सर्वसम्मति से नकारने के साथ ही विधानसभा ने तीन कानून बनाने का काम किया है। विरोध प्रदर्शनों के बाद उठाए गए इस नाटकीय कदम का तर्क स्पष्ट नहीं है। पहली बात, विधानसभा में पारित इन तीनों विधेयकों के संवैधानिकता परीक्षण में खरा उतरने की संभावना कम ही है। भले ही कृषि संविधान की राज्य सूची का विषय है लेकिन खाद्य उपज, नियंत्रण, आपूर्ति एवं वितरत समवर्ती सूची में रखे गए हैं। संवैधानिक विशेषज्ञों के मुताबिक राज्यों के पास समवर्ती सूची में शामिल मुद्दों पर बनाए गए संघीय कानून का उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है। पंजाब विधानसभा द्वारा पारित कानूनों में केंद्रीय कृषि कानूनों को संशोधित करने की बात कही गई है, लिहाजा उन्हें राज्य के राज्यपाल एवं देश के राष्ट्रपति का भी अनुमोदन हासिल करना होगा।
दूसरी तरफ पंजाब विधानसभा में पारित तीनों कृषि विधेयकों को राष्ट्रपति की अनुशंसा मिलने की संभावना कम ही है क्योंकि उनमें तीन तरह से केंद्रीय कानूनों के अध्यारोहण की कोशिश की गई है। पहला, पंजाब के विधेयकों में गेहूं एवं चावल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर करने वाले किसी भी शख्स को तीन साल की जेल का प्रावधान रखा गया है। दूसरे, वे सरकारी मंडियों के बाहर होने वाली खरीद-फरोख्त पर एक राज्य शुल्क लगाने की बात करते हैं। तीसरा, इनमें किसी विवाद की सूरत में एसडीएम अधिकारी के पास जाने के बजाय किसानों को दीवानी अदालतों तक पहुँच देने की बात कही गई है। तीसरे प्रावधान के बारे में तो केंद्र सरकार को गौर करना चाहिए क्योंकि इससे किसानों को विवाद निपटान का कहीं बेहतर मंच मिलता है।
जो भी हो, पंजाब के बनाए ये नए कृषि कानून पुरानी खरीद व्यवस्था को कायम रखने की कोशिश ही लगते हैं जिसमें बड़े किसानों एवं वितरकों को ही असल फायदा होता है और राज्य का राजस्व भी बना रहता है। यह देखना बाकी है कि क्या दूसरे राज्य भी पंजाब की तर्ज पर अपने कृषि कानून पारित करेंगे? वैसे ऐसा करना उनके हित में नहीं होगा।