Old Competition Law
- जुलाई 20, 2021
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In the past half a century or so of the industrial economy, we have learnt to swear by “competition” as the main driver of “efficiency”.
In the industrial economy the most foul-worthy action for a business (the equivalent of a non-goalkeeper in football touching a ball with his hands) is to be caught being part of a “cartel”; cartels being defined as a collection of sellers who conspire to jointly charge higher than normal prices. This is taken so seriously that in the United States and Europe, for example, creating and operating cartels can attract criminal prosecution and often very heavy fines.
Another action widely believed to be foul play in the industrial era is “predatory pricing”. As Wikipedia succinctly says: “Predatory pricing is a pricing Strategy, using the method of undercutting on a larger scale, where a dominant firm in an industry will deliberately reduce its prices of a product or service to loss-making levels in the short -term.”
With the advent of digital platforms, things like “cartelization” and “predatory pricing” are no longer composite banks being disaggregated to payments service players. Lending service players, and share trading players. And of course, as is well known in e-commerce, multiple chains of wholesales, regional distributors, and local retailers are being eliminated through this disintermediation.
Is all that is going on “fair” competition? Can the current competition laws deal with them? And while prices that these new digital players charge are very much lower than the brick-and-mortar players, the charge of “predatory pricing” as currently defined doesn’t appear to be a weapon precise enough to fight these low-price players and discounters.
In the industrial era, increased sales often are a challenge to the quality of products. On digital platforms the opposite is true. For example, if there are many developers producing great apps on a given platforms – say, the Android mobile platform. When this happens, even more app developers will be drawn to it. This “positive feedback loop” is what is behind the oft talked about “network effects” on successful digital platforms. Unfortunately, in seeking such positive feedback loops, many platforms with help from venture capital and private equity investors Subsidies the initial flow of users to achieve the scale needed for such network effects (for example, in e-commerce by offering free shipping).
How and whether competition law needs to view this positively or punitively is something thoughtful people worldwide are still grappling with. The game in digital platforms is thus probably different than in the industrial. And just as cricket can’t be played using the rules of football, does a new competition law not need to be drafted?
पुराना प्रतिस्पर्धा कानून
बीती आदी सदी की औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था में हमने यह सीखा है कि प्रतिस्पर्धा ही किफायत का सबसे अहम कारक है। एक औद्योगिक अर्थव्यवस्था में किसी कारोबार के लिए सबसे बड़ा फाउल (फुटबाॅल की भाषा में गैर गोलकीपर खिलाड़ी का गेंद को अपने हाथों से छूना) होता है किसी कार्टेल का हिस्सा बन जाना। कार्टेल ऐसे विके्रताओं का समूह होता है जो शडयंत्र करके कीमतों को सामान्य से अधिक रखते हैं। इसे इतनी गंभीरता से लिया जाता है कि अमेरिका और यूरोप में कार्टेल बनाना और चलाना अपराध है और अक्सर ऐसा करने पर भारी जुर्माना लगाया जाता है।
औद्योगिक युग में एक और कदम जिसे गलत माना जाता है वह है आक्रामक ढंग से मूल्य निर्धारण करना। जैसा कि विकीपीडिया कहता हैः आक्रामक मूल्य निर्धारण एक नीति है जिसके तहत किसी उद्योग में दबदबा रखने वाली कंपनी जान बूझकर किसी उत्पाद या सेवा की कीमत अल्पावधि में अत्यधिक कम कर देती है और घाटा तक सहन करने को तैयार हो जाती है।
डिजिटल प्लेटफाॅर्म के बढ़ने के साथ ही कार्टेल बनाने और आक्रामक मूल्य निर्धारण आदि उतना ही सरल नहीं रहा जितना वह पहले हुआ करता था।
जैसे कि बैंकों को भुगतान सेवा प्रदाताओं, ऋण प्रदाताओं और शेयर कारोबारियों में विभक्त किया जा रहा है। इसके अलावा ई-काॅमर्स, थोक विक्रेताओं की श्रृंखलाओं, क्षेत्रीय वितरकों और स्थानीय खुदरा कारोबारियों के बीच से भी बिचैलियों को हटाया जा रहा है।
क्या ये सारी बातें निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा की ओर ले जा रही हैं? क्या मौजूदा प्रतिस्पर्धा कानून उनसे निपटने में सक्षम हैं? इन नए डिजिटल कारोबारों का मूल्य पारंपरिक कारोबारों की तुलना में काफी कम है लेकिन आक्रामक मूल्य निर्धारण की मौजूदा परिभाषा इन कम कीमत और रियायत वाले कारोबारियों के खिलाफ समुचित हथियार नहीं है।
औद्योगिक युग में अक्सर बढ़ी हुई बिक्री उत्पादों की गुणवत्ता के लिए चुनौती बन जाती है। डिजिटल प्लेटफमाॅर्म के लिए इसका उलट सही है। उदाहरण के लिए यदि कई डेवलपर किसी दिए गए मंच मसलन ऐंड्राॅयड मोबाइल प्लेटफाॅर्म पर बेहतरीन ऐप पेश कर रहे हैं तो अधिक तादाद में उपभोक्ता उस मंच की ओर आकर्शित होंगे। जब यह होता है तो और अधिक तादाद में डेवलपर उसकी ओर आकर्शित होते हैं। यह सकारात्मक प्रतिपुश्टि व्यवस्था ही सफल डिजिटल प्लेटफाॅर्म के बहुचर्चित नेटवर्क प्रभाव के मूल में हैं। खेद की बात है कि ऐसी सकारात्मक प्रतिपुश्टि की तलाश में कई प्लेटफार्म वेंचर कैपिटल और निजी निवेशकों की मदद से उपभोक्ताओं को शुरूआती दौर में रियायत देते हैं ताकि नेटवर्क प्रभाव के लिए जरूरी पैमाने पर काम किया जा सके। उदाहरण के लिए ई-काॅमर्स में सामान को निःशुल्क उपभोक्ता तक पहुंचाने की व्यवस्था।
प्रतिस्पर्धा कानून इसे कैसे और कहां सकारात्मक या नकारात्मक रूप से देखे इसके लिए दुनिया भर में विचार-विमर्श चल रहा है। डिजिटल प्लेटफाॅर्म का काम संभवतः औद्योगिक तौर तरीकों से अलग है। जिस तरह क्रिकेट को फुटबाॅल के नियमों से नहीं खेला जा सकता है वैसे ही क्या एक नये प्रतिस्पर्धा कानून की जरूरत नहीं है?