अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि भारत के लिए समावेशी आर्थिक वृद्धि हासिल करने में रोजगार, उद्यमिता और पूंजीगत व्यय में वृद्धि के साथ-साथ वृहद आर्थिक स्थिरता भी जरूरी है। क्या समावेशी आर्थिक विकास अभी भी महज एक सपना है, इस विषय पर चर्चा के दौरान विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने कहा कि समावेशिता वैश्विक चिंता है और भारत ने इस दिशा में बीते चार से पांच वर्षों के दौरान कई सारे संरचनात्मक परिवर्तन किए है।

पिछले दस वर्षों के दौरान 29 राज्यों में प्रति व्यक्ति आय से पता चलता है कि सबसे बड़े और सबसे छोटे राज्यों के बीच मौजूद असमानता कम हो रही है। कुल आयकरदाताओं में से 13.6 फीसदी पांच लाख रूपये से नीचे की सीमा से ऊपर उठकर अधिक की सीमा में चले गए। कमजोर तबके के लोग भी ऋण प्रणाली में शामिल हो रहे हैं। फिलहाल जो अच्छी बात दिख रही है वह यह है कि जमा को औपचारिक बनाए जाने से उधारी भी उसी रफ्तार से औपचारिक होती जा रही है।

अर्थशास्त्री के अनुसार जब देश में उच्च सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि देखी जाती है तो आय असमानता का बिगड़ना बिल्कुल स्वाभाविक हैं। वैश्विक महामारी कोरोना जैसे आपूर्ति पक्ष के झटके भी आय की असमानता बढ़ाते हैं। आय असमानता के कुछ कारणों में कोरोना के पहले के स्तरों की तुलना में विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार 15 फीसदी कम हो गया है, जबकि निर्माण क्षेत्र में यह बढ़ गया है, जो विनिर्माण की तुलना में कम भुगतान वाला है।

एक अन्य अर्थशास्त्री का कहना है कि समावेशी विकास हासिल करने का एक तरीका अधिक उद्यमिता बढ़ाना है जो न केवल रोजगार पैदा करने में मदद करती है बल्कि किसी को समय के साथ-साथ अधिक रोजगार और संपत्ति बनाने में भी सक्षम बनाती है। कई अर्थशास्त्री ने सरकार को सुझाव दिया है कि घरेलू उद्योग को बढ़ाने के लिए सुरक्षा का उपयोग करने जैसे अल्पकालिक सुधारों के प्रलोभन में न आएं। इसको लेकर हमारा इतिहास काफी अप्रिय रहा है।