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एस्टोनिया का प्रतिनिधिमंडल किस उद्धेष्य से गांधीधाम आया था?

एस्टोनिया रूस से सटा हुआ देश है। युक्रेन से थोड़ा सा दूर है। नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड के बीच में हैं। उनका एक प्रतिनिधिमंडल गांधीधाम आया था। कोस्टा प्लाई में हमने उनका स्वागत किया।

भारतीय और एस्टोनिया के वनों की तकनीक और कार्यशैली की विस्तृत चर्चा हुई। वस्तुतः एस्टोनिया का बहुत बड़ा भाग वनों से आच्छादित है, जिसका वो निर्यात भी करते है। उसी सिलसिले में भारत में अपनी लकड़ी निर्यात की संभावना तलाश रहें है।

वहां किस तरह की लकड़ी उपलब्ध है

एसपीएफ़ लकड़ी यानी की ‘‘स्प्रूस-पाइन-फ़र‘‘ यह, पेड़ों की वह प्रजाति जो एसपीएफ़ लकड़ी बनाती है। एसपीएफ़ लकड़ी को मोटे तौर पर उत्तरी अमेरिका में दो अलग-अलग प्रजातियों में बांटा जा सकता है। पूर्व और पश्चिम। पूर्वी एसपीएफ़ लकड़ी की प्रजातियों में, व्हाइट स्प्रूस, ब्लैक स्प्रूस, रेड स्प्रूस, जैक पाइन और बाल्सम फ़र हैं।

भारत में इस लकड़ी की संभावना क्या है

अभी वह यूरोप न्यूजीलैंड अमेरिका में बेच रहे है। भारत में वहां की लकड़ी को आयात करना थोड़ा महंगा पड़ रहा है। लेकिन यह भी सही है कि लकड़ी की क्वालिटी अभी भारत में आयात होने वाले दुसरी लकड़ियों से बेहतर है। हालांकि, उन्होंने कीमत को लेकर आश्वासन दिया है। वहां की सरकार भी लकड़ी उत्पादकों की मदद करती है। प्रतिनिधियो के साथ वहां की एंबेस्डर भी गांधी धाम आई थी। भारत के साथ व्यापार के लिए संभावना तलाशी जा रही है।

भारत में लकड़ी की मौजूदा मांग कितनी है

प्लाईवुड और एमडीएफ जैसे पैनल उत्पादों के विस्तार के इस दौर में भी लकड़ी की मांग बनी हुई है। इसका मुख्य कारण है लकडी का अपना प्राकृतिक गुण जो हर तरह के उपभोक्ता को अपनी ओर आकर्शित करता है। दिक्कत यह है कि लकड़ी की गुणवत्ता बढ़ाने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस ओर ध्यान देना होगा। हमारे यहां फर्निचर के लिए हर तरह की लकड़ी उपलब्ध है। लेकिन लकड़ी की गुणवत्ता और संरक्षण पद्धति बेहतर करनी आवश्यक है।

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लकड़ी की गुणवत्ता कैसे बढ़ सकती है

इसके लिए लकड़ी की सीजनिंग अनिवार्य होनी चाहिए। भारत में कच्ची लकड़ी का बहुतायत इस्तेमाल से इसके प्रति जनता की बेरूखी बढ़ती जा रही है। सीजनींग नहीं होने के कारण गर्मियों में फैलने और सर्दियों में सिकुड़ने की समस्या बढ़ जाती है। कच्ची लकड़ी में कीडे़ लगने का खतरा अत्यधिक होता है जो वास्तविक भी है। लकड़ी को सिजनींग करके इन सबसे बचा जा सकता है। सरकार को भी इस बारे में जागरूकता फैलाने का प्रयास करना चाहिए।

क्या उपाय किए जाने चाहिए

जागरूकता की कमी है। सरकारी स्तर पर भी और सॉ मिल संचालकों के स्तर पर भी। इसकी जरूरत ही महसूस नहीं कर रहे हैं। जबकि यह आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। होना तो यह चाहिए कि सॉ मिलों में उच्च तकनीक प्रयोग हो।

सॉ मिल संचालकों को अपनी मशीनों को आधुनिक करना होगा। सॉ मिल संचालकों को इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। अगर पूर्ण स्वाचालित नहीं भी करते हैं और शुरूआत अर्द्ध स्वचालित तकनीक से करते है। तो भी देश में लाखों घनफुट लकड़ी की बचत की जा सकती है।

एक मोटे अनुमान से भारत में अगर 10 करोड़ घन मीटर की सालाना खपत होती है, तो उसकी कीमत 5,000 से 50,000 करोड़ होगी। यदि इसमें हम 1 प्रतिशत भी बचत करने में कामयाब हो जाते है तो उसकी कीमत होगी 500 करोड़। हमारे यहां 80 हजार से एक लाख सॉ मिल है। सभी का आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है।

क्वालिटी सुनिश्चित कैसे होगी?

लकड़ी की संरक्षण और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए विशेष सख्त कानून बनाने की जरूरत है यूं भी बीआईएस जिस तरह से लकड़ी के दूसरे उत्पादों में अनिवार्य हो रहा है, सॉ मिल में भी होगा। मेरी जानकारी के अनुसार इस पर बीआईएस में काम भी शुरू हो गया है। गुणवत्ता को लेकर नए नियम आने ही है। जिसके बाद नेट जीरो ग्रेडिंग, सीजनिंग आवश्यक होंगे ही।

इस तरह के कानून का लोग विरोध भी तो करते हैं

कुछ लोग शुरूआत में विरोध करते हैं, लेकिन कानून यदि अच्छे के लिए है तो सब बाद में मान जाते हैं। सॉ मिल संचालकों को समझाया जाना चाहिए कि लकड़ी की गुणवत्ता बढ़ाना बहुत ही आवश्यक है। कानून बनने के बाद जो लोग इस ओर ध्यान नहीं देंगे, वह कानूनी तौर पर बाध्य हो जाएगे। कानून तोड़ने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही भी संभव होगी।

इससे उत्पादन लागत और लकड़ी की कीमत भी तो बढ़ जाएगी?

वर्तमान में अधिकतर फर्नीचर निर्माता कच्ची लकड़ी का इस्तेमाल कर रहें है। घरों में स्थानीय तौर पर सीजनींग की सुविधा के अभाव में कच्ची लकड़ी का इस्तेमाल बेरोकटोक हो रही है। कुछ ही अरसे में उपभोक्ता लकड़ी के डीग्रेड होने से परेशान हो जाता है। और फिर अन्य विकल्प तलाश करते हुए लकड़ी से विमुख होने लगता है।

हालांकि, भारतीय जनमानस परंपरागत रूप से लकड़ी के उत्पादों से खुख है। ऐसे में उपभोक्ता को अगर सीजन की गई लकड़ी के उत्पाद मिलेंगे तो वह आश्वस्त होकर बढ़ी हुई कीमत अंदा करने के लिए तैयार हैं।

दुसरी ओर तकनीक और सीजनींग के अभाव में बर्बादी अधिक होती है। इस बर्बादी के रूकने और रिकवरी बढ़ने से लागत पर कोई बोझ नहीं पड़ेगा। बल्कि यह एक दुसरे का पूरक हो जाएगा।


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