economy reform

A Look at The Journey of Economic Reform in The Country


In depth, the major improvements are relay races rather than furrota races. They involve the combined efforts of various institutions and individuals within a long period of time. It works through the development and promotion of ideas and important components like the committee process.

The problem of inflation in India has been continuous. On February 20, 2015, the Reserve Bank of India (RBI) set a target to keep inflation within the prescribed range. But this story actually started from the nineties and will probably go till 2025. The RBI fixed the exchange rate of the US dollar and the rupee for a long time at $ 31.37 per rupee due to abundant capital inflows. For this, the RBI bought a large amount of dollars, which led to a huge rupee in the market and created inflationary conditions.

C Ranganathan and SS Tarapore, who were the then RBI chiefs, had a keen sense of these difficulties. They understood the barriers of the ‘impossible trio’: no ​​country could maintain monetary policy autonomy, nor handle its exchange rate, nor openness to its capital account. His strategic insight was that the way forward would be through an open capital account and a flexible exchange rate with which successful monetary policy would also be necessary to keep inflation within target. These ideas were then assimilated within the RBI.

In 2007, the Percy Mistry committee suggested setting inflation targets. The Raghuram Rajan Committee also repeated this in the year 2009. When consumer price index (CPI) -based inflation rose above 5 per cent in February 2006, understanding of previous years gave a future perspective and inflation in India became a persistent crisis.

The Commission, constituted under the chairmanship of Justice BN Srikrishna to reform the financial laws, gave suggestions in 2013 about the procedure related to the functioning of the Monetary Policy Committee. Apart from this, it was also said to make RBI accountable for keeping inflation low and stable. After this the Urjit Patel Committee on Monetary Policy Reforms also advocated this common sense.

A two-tier strategy was created within the Finance Ministry. Through the WMA Agreement implemented in the late nineties, the fiscal deficit was prohibited from being provided by the RBI. It was earlier an agreement between the Ministry of Finance and the RBI and later took the form of the Fiscal Responsibility and Budget Management (FRBM) Act. Similarly, inflation targeting was also initiated earlier through a monetary policy draft agreement between the RBI and the Ministry of Finance. Later it was amended to include the RBI Act.

The new format of monetary policy also produced rapid results. In the last decades, instead of continuous failure on the inflation front, total inflation has been limited to the range of 2-6 per cent. For the first time in the country’s recent history, monetary stability is within reach.

But at the same time a lot has to be done for this so that even small changes in the policy rate can affect the economy so that more control over inflation can be achieved. For this, reforms of banking regulation and bond market regulation will need to implement well-established agenda. This work will take another five years. If it works, then the story of India’s monetary policy system is called temporary in 1934 to the RBI, clear thinking in the nineties, and after the second round of reforms in 2015 until the inflation fixation format to fully work by 2025 will go on. It is a long way and every generation of reformers hand over the torch to the upcoming reformer.

Some similar examples are GST, anti-black money law. All these have started from mere ideas within a long time and have reached the form of law through the recommendations of the committees. The torch of reforms has always been passed on from one generation to the next. India today needs such laws in all areas.


देश में आर्थिक सुधार के सफर पर एक नजर


गहराई से देखें तो बडे़ सुधार फर्राटा दौड़ न होकर रिले दौड़ होते हैं। उनमें लंबे समय के भीतर विभिन्न संस्थानों एवं व्यक्तियों के सम्मिलित प्रयास शामिल होते हैं। विचारों के विकास एवं संवदर्धन और समिति प्रक्रिया जैसे अहम घटकों के जरिये यह काम करता है।

भारत में मुद्रास्फीति की समस्या अनवरत रही है। 20 फरवरी, 2015 को भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के लिए मुद्रास्फीति को निर्धारित दायरे में रखने का लक्ष्य दे दिया गया। लेकिन यह कहानी असल में नब्बे के दशक से ही शुरू हो गई थी और संभवतः 2025 तक जाएगी। प्रचुर पूंजी प्रवाह होने पर आरबीआई ने लंबे समय तक अमेरिकी डाॅलर एवं रूपये की विनिमय दर को 31.37 डाॅलर प्रति रूपये पर निश्चित किया हुआ था। इसके लिए आरबीआई ने बड़े पैमाने पर डाॅलर खरीदे जिससे बाजार में रूपये की भरमार हो गई और मुद्रास्फीति के हालात पैदा हुए।

उस समय आरबीआई के मुखिया रहे सी रंगनाथन और एस एस तारापोर को इन मुश्किलों का बखूबी अहसास था। वे ‘असंभव तिकड़ी’ के अवरोधों को समझते थेः कोई भी देश न तो मौद्रिक नीति स्वायत्ता कायम रख सकता है, न ही अपनी विनिमय दर को संभाल सकता है और न ही उसके पूंजी खाते में खुलापन हो सकता है। उनकी यह रणनीतिक अंर्तदृष्टि थी कि आगे का रास्ता एक खुले पूंजीगत खाते और एक लचीली विनिमय दर से होकर जाता है जिसके साथ मुद्रास्फीति को लक्ष्य के भीतर रख पाने में सफल मौद्रिक नीति भी जरूरी होगी। इन विचारों को फिर आरबीआई के भीतर आत्मसात कर लिया गया।

वर्ष 2007 में पर्सी मिस्त्री समिति ने मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करने का सुझाव दिया था। रघुराम राजन समिति ने भी वर्ष 2009 में इसे दोहराया। जब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति फरवरी 2006 में 5 फीसदी से ऊपर हो गई तो पिछले वर्षों की समझ ने भविष्य की दृष्टि दी और भारत में मुद्रास्फीति लगातार बना रहने वाला संकट बन गया।

वित्तिय कानूनों में सुधार के लिए न्यायमूर्ति बी एन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में गठित आयोग ने वर्ष 2013 में मौद्रिक नीति समिति के कामकाज से संबंधित प्रक्रिया के बारे में सुझाव दिए थे। इसके अलावा मुद्रास्फीति को कम एवं स्थिर बनाए रखने के लिए आरबीआई को उत्तरदायी बनाने की बात भी कही गई थी। उसके बाद मौद्रिक नीति सुधारों पर गठित ऊर्जित पटेल समिति ने भी इस आमराय की वकालत की।

वित्त मंत्रालय के भीतर दो स्तर वाली रणनीति बनाई गई। नब्बे के दशक के आखिर में लागू अर्थाेपाय समझौते के माध्यम से राजकोषीय घाटे का पैसा आरबीआइ द्वारा मुहैया कराए जाने पर रोक लगाई गई थी। यह पहले वित्त मंत्रालय एव आरबीआई के बीच हुआ करार था और बाद में इसने राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम का रूप ले लिया। इसी तरह, मुद्रास्फीति के लक्ष्य निर्धारण की शुरूआत भी पहले आरबीआई एवं वित्त मंत्रालय के बीच मौद्रिक नीति प्रारूप समझौते के जरिये हुई थी। बाद में आरबीआई अधिनियम में संशोधन कर इसे शामिल किया गया।

मौद्रिक नीति के नए प्रारूप ने तेजी से नतीजे भी दिए। पिछले दशकों में मुद्रास्फीति के मोर्चे पर लगातार मिली नाकामी की जगह कुल मुद्रास्फीति 2-6 फीसदी के दायरे में ही सीमित हो गई। देश के हालिया इतिहास में पहली बार मौद्रिक स्थायित्व पहुँच के भीतर है।

लेकिन इसी समय इसके लिए अभी काफी कुछ करना बाकी है ताकि नीतिगत दर में होने वाले छोटे बदलाव भी अर्थव्यवस्था पर असर डाल पाएं जिससे मुद्रास्फीति पर अधिक नियंत्रण पाया जा सके। इसके लिए बैंकिग नियमन एवं बाॅन्ड बाजार नियमन के सुधारों के लिए सुस्थापित एजेंडे को लागू करने की जरूरत होगी। इस काम में फिर पांच साल लग जाएंगे। अगर यह कारगर होता है तो भारत की मौद्रिक नीति व्यवस्था की गाथा 1934 में आरबीआई को अस्थायी बताने, नब्बे के दशक में इसे मिली स्पष्ट सोच और 2015 में दूसरे दौर के सुधार होने के बाद मुद्रास्फीति निर्धारण प्रारूप को वर्ष 2025 तक पूरी तरह कारगर बनाने तक चलती रहेगी। यह एक लंबा सफर है और सुधारकों की हरेक पीढ़ी आगामी सुधारक को मशाल सौंपती है।

इसी तरह के कुछ उदाहरण जीएसटी, काला धन निरोधक कानून भी है। ये सभी लंबे समय के भीतर महज विचारों से शुरू होकर समितियों की अनुशंसाओं के रास्ते कानून की शक्ल तक पहुंचे हैं। सुधारों की मशाल हमेशा ही एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को सौंपी जाती रही है। भारत को आज सभी क्षेत्रों में ऐसे कानूनों की जरूरत है।