कोविड महामारी के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है। जहां कई देश अपनी जनता को भूखमरी से बचाने के लिए जुझ रहें हैं, वहीं कई देश और उनका व्यापारी वर्ग पुंजीगत खर्च बढ़ाते हुए भविष्य के लिए अपने आपको तैयार कर रहें हैं।

वैश्विक स्तर पर शीर्ष के 20 प्रतिशत वर्ग की वार्षिक वृद्धि दर 10 प्रतिशत से अधिक है, वहीं शेष 80 प्रतिशत की महज 5 प्रतिशत से भी कम। यह रूझान विश्व के साथ साथ भारत में भी नजर आ रहा है।

इसके अलावा हम देख रहें कि भारत में शेयर बाजार और सोना 15-20 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा है। औद्योगिक उत्पादन भी 7-10 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा हैं। जीएसटी संग्रंह लगातार अपने उच्चतम स्तर पर है। लेकिन इसके विपरीत घरेलु खपत 4-5 प्रतिशत पर स्थिर है।

जब इस तरह की विपरित परिस्थितीयां दृष्टिगोचर होती हैं, तो सामान्यतः एक असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है, कि व्यापारिक निर्णय का रूख क्या होना चाहिए।

यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि चढ़ाई पर लगातार पेडल चलाते रहने पर ही साइकिल (भले ही कम गति) पर लेकिन निरंतर आगे की ओर खिसकती है। जहां हमने पेड़ल चलाना बंद किया तो साइकिल वापस ढ़लान की ओर खिसकना शुरू हो जाती है।

काष्ठ आधारित और इससे संबद्ध उद्योग वर्त्तमान में इसी बिन्दु पर खड़ा है। जहां पहाड़ी के उस पार (नजर न आने वाली) संभावनाएं है। हम उस शिखर पर कब पहुंचेंगें यह वैश्विक परिस्थितीयों के सहज होने और भारत सरकार के विभीन्न नीतीगत कदमों पर निर्भर है।

लेकिन हमें अपनी सक्रियता की आदत लगातार बनाए रखनी होगी।

जब भी कोई सफल व्यक्तित्व हमें अपने सफर के बारे में बता रहा होता है कि कैसे उसकी किसी खास आदत ने उसे और उसकी कंपनी को उंचाईयों तक पहुंचाया है। तो सामान्यतः हमें उस लम्बी यात्रा (जो शायद 10-20-30 साल तक की होती है) के ब्योरे जानने में रूचि नहीं होती है। इस यात्रा के कष्टकर अनुभवों और सामान्य सुखों को तिलांजली देकर कठिन तपस्या पर की जा रही चर्चा को सुनने (अपनाना तो दूर की बात) में किसी का ध्यान नहीं होता।

क्या कभी हमने सोचा है कि इन आदतों के बारे में जान कर प्रभावित हुए लोग, अपनी असल जिदंगी में खुद वैसा ही करने के बजाए, उसके बारे में सोच सोच कर ही खुश हो लेते हैं और अपनी पीठ ठोक लेते हैं?

कल्पना करना, सोचना किसी की किताब पढ़ने या बात सुनने जितना ही आसान हैं। जो उससे जुड़ी मशक्कत से मुतासिर होते हैं, वो आदत की नींव डालने की पहल करते हैं। वो नतीजों से ज्यादा, आदत बनने की यात्रा या प्रक्रिया को समझने, उसका पालन करने में रूचि लेते हैं। यही जरूरी है।

अच्छे नतीजे, सतत प्रक्रिया की परिणति होते हैं। नतीजे अपने आप में कुछ मायने नहीं रखते, उन तक पहुंचने की प्रक्रिया ही अहम है।

 

सुरेश बाहेती

9050800888


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