इस दशक के समाप्त होने तक अगर भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सात फीसदी सालाना की दर से बढ़ता रहा तो हम जर्मनी और जापान को पछाड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। और 2047 तक हमारा देश 21 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश हो जाएगा। यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मौजूदा आकार है यानी हम यकीनी तौर पर एक आर्थिक महाशक्ति होंगे।

परंतु केवल आय लोगों को खुशहाल नहीं बनाती। भारत को न केवल जीडीपी में इजाफा करने की आवश्यकता है बल्कि उसे बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य, बेहतर रोजगार, असमानता में कमी तथा सामाजिक एकता की भी जरूरत है। सीखने का स्तर कमजोर बना हुआ है और अधिकांश युवा कौशल विहीन हैं तथा बुनियादी काम करना भी नहीं जानते।

ऐसे में खतरा यह है कि कहीं भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश एक त्रासदी में न बदल जाए। विश्व बैंक कहता है कि रोजगार के अनुपात में गिरावट आ रही है। कृषि रोजगार में कमी आनी चाहिए थी, लेकिन उसमें इजाफा हो रहा है। जिन लोगों को खेतों के बाहर काम मिला उन्हें मोटे तौर पर सिर्फ विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में दिहाड़ी पर काम करने का ही मौका मिला। सरकार की प्रतिक्रिया यही है कि रोजगार तैयार करना उसका काम नहीं है। निजी क्षेत्र को रोजगार तैयार करने चाहिए।

लेकिन जटिल श्रम कानूनों और पुराने पड़ चुके नियमन की वजह से जमीन लगातार महंगी होते जाने के कारण तथा कारोबारी सुगमता की अन्य लागत के महंगा होने के कारण निजी क्षेत्र उच्च तकनीक और पूंजी के इस्तेमाल वाले क्षेत्रों में निवेश करना चाहता है, न कि कम कौशल वाले विनिर्माण क्षेत्र में जहां ढेर सारे कम पढ़े-लिखे लोग नौकरी तलाश करते हैं।

कई कंपनियां अपना काम छोटी कंपनियों को सौंप देती हैं जो कम कुशल दैनिक श्रमिकों से काम करवाती हैं। तकनीकी क्षेत्र के रोजगार बढ़ रहे हैं, लेकिन वे हर वर्ष श्रम योग्य आबादी में शामिल हो रहे एक करोड़ युवाओं की रोजगार की जरूरतें पूरी नहीं कर सकते। सरकार की औद्योगिक नीति की पीएलआई सब्सिडी कम श्रम गहन क्षेत्रों पर केंद्रित है। ऐसे में रोजगार की कमी चौंकाती नहीं है।

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हालांकि भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ना इस बात का संकेत है कि भारत बड़े पैमाने पर ऐसी कंपनियां तैयार कर रहा है जिनमें कोरिया और जापान की तरह वैश्विक प्रतिस्पर्धा का मुकाबला करने की क्षमता है। वे एक ऐसी आपूर्ति श्रृंखला तैयार करती हैं जहां छोटी कंपनियां समृद्ध होती हैं।

परंतु हमने लैटिन अमेरिका में देखा है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बचाकर रखी गई ऐसी बड़ी कंपनियां तब बड़ी बाधा बनकर सामने आती हैं जब वे राजनीति और इस प्रकार नियमन को प्रभावित करने में सक्षम हो जाती हैं।

नवाचार की कमी और नियमन को यूं प्रभावित करने वाली कंपनियों के कारण लैटिन अमेरिका मध्य आय के जाल में फंस गया। अब भारत वैश्विक प्रतिस्पर्धा वाली कंपनियों के साथ कोरिया और जापान की राह पर जाएगा या संरक्षित बाजारों के साथ लैटिन अमेरिका की राह पर, यह देखना होगा। संरक्षित बाजारों में उपभोक्ताओं को उच्च मार्जिन चुकाना होता है और देश मध्य आय के जाल में उलझ सकता है।

नई कल्याणकारी व्यवस्थाएं जहां गरीबों को निःशुल्क अनाज, गैस सिलिंडर, निःशुल्क बिजली और पानी का कनेक्शन दिया जा रहा है, वे कुछ चुनाव जीतने में मदद कर सकते हैं। लेकिन बिना अधिक रोजगार तैयार किए, हम ष्विकसितष् भारत नहीं बना सकते।

भारत के विकास मॉडल में गंभीर सुधार की जरूरत है क्योंकि अगर असमानता और अकुशलता एक बार पैबस्त हो गई तो उसे दूर करना मुश्किल होगा। हम समृद्ध भारत के साथ-साथ समावेशी भारत चाहते हैं ताकि भारत खुशहाल देश बन सके।


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