Editorial
- दिसम्बर 29, 2021
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System in our imperfect Democracy
he Indian state is used to treating the country’s citizens as its captives, to be dealt with as arbitrarily as anyone in authority wishes. Regardless of which party is in power-at the Centre and in the states-the predatory nature of the state is the same. Consider just three pieces of evidence.
First, more than two-thirds of the people held in India’s jails have not been convicted of any crime; they merely face court processes that go on for years if not decades.
Second, the tax authorities reportedly lose 85 per cent of tax cases in the various high courts, and 74 per cent of cases in the Supreme Court. Is anyone held to account for wasting the courts time, and the harassment and cost this imposes on taxpayers? You bet not.
And in the third instance, the stock market regulator is able to collect only a little over 1 per cent of the financial penalties for which it sends out notices.
All three examples point to arbitrariness or, at the very least, counter-productive zeal by different arms of the state, with little thought for the citizen at the receiving end. For him or her, the process itself is increasingly the eventual punishment. If you have spent 20 years in jail, or been bankrupted by legal costs, what does it matter if you have “won” or lost the case?
This may have come to be accepted with resignation within the country as the way in which the system works in our imperfect democracy. But when the state behaves in the same manner with external players, it gets pus-back that it does before us – cairn, Vodafone, and devas multimedia. In the first two, involving retrospective taxation, India has lost arbitration cases internationally-and lost in unanimous verdicts. Appeal processes are on, but cairn has moved to attach Indian assets in several countries- like real estate, and possibly money with public sector banks and Air India aircraft. Devas multimedia, has won a case against Antrix Corporation (a subsidiary of the Indian Space Research Organization) for arbitrary cancellation of a contract.
As with domestic tax cases, the government may well believe it has a case even if the has lost in court. But there is a difference. Domestically the state pays no penalty for converting the process into punishment. Internationally, once the verdict has gone against you, the state has to accept the consequences of its actions.
त्रुटि पुर्ण लोकतन्त्र में
भारतीय राज्य की प्रवृत्ति अपने नागरिकों के साथ बंधुआ जैसा व्यवहार करने की हो गई है। उनके साथ सत्ताधारी वर्ग का व्यवहार मनमाना होता है। केंद्र और राज्यों की सत्ता में चाहे जिस दल की सरकार हो, सत्ता का यह स्वभाव नहीं बदलता। इसके तीन प्रमाणों पर बात करते हैं।
पहली बात, देश की जेलों में बंद दो तिहाई से अधिक लोगों पर कोई अपराध प्रमाणित नहीं है, वे दशकों नहीं तो भी वर्षों से अदालती प्रक्रिया के चलते जेल में बंद हैं।
दूसरा, कर अधिकारियों को कर वसूली के 85 फीसदी मामलों में उच्च न्यायालयों में तथा 74 फीसदी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय में हार का सामना करना पड़ता है। क्या किसी को अदालतों का समय बरबाद करने के लिए जवाबदेह ठहराया जाता है? और इस बात के लिए भी कि यह करदाताओं के लिए प्रताडना और आर्थिक क्षति का सबब बनता है? यकीनन नहीं।
तीसरे उदाहरण की बात करें तो शेयर बाजार नियामक नोटिसों के जरिये जो जुर्माना लगाता है, उसका बमुश्किल एक फीसदी से थोड़ा अधिक ही वसूल पाता है।
तीनों उदाहरण मनमानेपन की ओर संकेत करते हैं। या कहें तो सरकार की विभिन्न शाखाओं द्वारा ऐसे उत्साह का जो अंततः नुकसानदेह साबित होता है। इस दौरान प्रताड़ित होने वाले नागरिकों के बारे में कुछ नहीं सोचा जाता। उनके लिए तो यह पूरी प्रक्रिया ही दंड के समान है। यदि आपने 20 वर्ष जेल में बिता दिए या कानूनी वजहों से दिवालिया हो गए तो फिर आप मामला जीतें या हारें, क्या फर्क पड़ता है?
हमारे अपरिपक्व लोकतंत्र में इस बात को निराशा के साथ स्वीकार कर लिया गया है कि व्यवस्था ऐसे ही काम करती है। परंतु जब राज्य सत्ता बाहरी लोगों के साथ भी इसी तरह पेश आने लगती है तो उसे ऐसे प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है जो आमतौर पर देश में देखने को नहीं मिलता। इसके भी तीन तात्कालिक उदाहरण हमारे सामने हैं- केयर्न, वोडाफोन और देवास मल्टीमीडिया। इनमें से पहले दो मामले अतीत से प्रभावी कराधान के हैं और इनमें भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एकमत से दिए गए निर्णयों में परास्त हो चुका है। अपील की प्रक्रियाएं चल रही हैं लेकिन केयर्न ने कई देशों में भारत की परिसंपत्तियां जब्त करने की पहल कर दी है। इनमें अचल संपत्ति, एयर इंडिया के विमान और सरकारी बैंकों की नकदी आदि शामिल हैं। देवास मल्टीमीडिया को एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन (भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी की अनुषंगी) के खिलाफ एक अनुबंध को मनमाने ढंग से रद्द करने के मामले में जीत हासिल हो चुकी है।
घरेलू कर मामलों की तरह सरकार यह मान सकती है कि अदालत में हारने के बावजूद उसका दावा बनता है लेकिन एक अंतर स्पष्ट है। घरेलू स्तर पर सरकार प्रक्रिया को दंड में तब्दील करने के लिए कोई जुर्माना नहीं चुकाती परंतु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यदि एक बार आपके खिलाफ निर्णय हो गया तो सरकार को अपने कदमों का परिणाम भी सहन करना पड़ता है।