Editorial 2021

World now looks up to India as an oasis in an era of a vast drought of growth, intellectual ideas and morality.


India has never been in a sweeter spot as it is in today in its history.

Our economy is doing so brilliantly that we will left our former colonial masters Britain behind on total gross domestic product, (GDP).

Our Markets are booming, the rupee has weakened less against the dollar than all other currencies.

Make in India, Digital India, Skill India, and Invest India all mark a great era of economic boom.

The silly fellows at World Bank may cut our growth estimate to 6.5 per cent.

It will still be highest among major economies in the world.

More important than putting all these perceived and real achievements to the test of reality and facts is to alert ourselves to some of our greatest perils in our larger national thinking, method and style.

World now looks up to India as an oasis in an era of a vast drought of growth, intellectual ideas and morality.

In fact, we do not believe in coherent, self-initiating and self-motivating actions. Honorable exceptions are there, although.

But just look at the productivity rate of our enterprises-businesses and activities.

Consider manufacturing in particular.

We mostly think we are better at doing the other guy’s work.

We Indians have the wonderful quality of stealing the defeats of others.

For years, there was an atmosphere of fear about economic reforms.

We may still be happy with 6.5-7 per cent growth as being the best in the word, but our five-year average would be just about 3.5 per cent.

We can blame the lockdown year, but the growth had declined to below 5 per cent before that.

Much great stuff has happened.

There is much to be proud of and celebrate.

But still there is much more imperfections, which reminds us that there is still much work to be done.

सुरेश बाहेती
9050800888



जब आर्थिक वृद्धि, बौद्धिक विचारों और नैतिकता का भयावह सूखा दौर चल रहा है, दुनिया को भारत रेगिस्तान में एक नखलिस्तान नजर आ रहा है।

भारत आज जितना खुशहाल है, उतना इतिहास में कभी नहीं रहा।

हमारी अर्थव्यवस्था इतना शानदार प्रदर्शन कर रही है कि हम सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मामले में ब्रिटेन को भी पीछे छोड़ देंगे जिसने कभी हम पर राज किया था।

हमारे बाजार गुलजार हैं। दुनिया की तमाम अन्य मुद्राओं की तुलना में रूपया कम ही कमजोर हो रहा है।

मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया और इन्वेस्ट इंडिया सभी आर्थिक उत्कर्ष के महान दौर के प्रतीक हैं।

भले ही विश्व बैंक में बैठे कुछ नादान लोगों ने हमारी वृद्धि की दर को घटाकर 6.5 फीसदी कर दिया हो, लेकिन फिर भी यह दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज होगी।

जब आर्थिक वृद्धि, बौद्धिक विचारों और नैतिकता का भयावह सूखा दौर चल रहा है, दुनिया को भारत रेगिस्तान में एक नखलिस्तान नजर आ रहा है।

ब्हरहाल, इन सभी कथित और वास्तविक उपलब्धियों को वास्तविकता एवं तथ्यों की कसौटी पर कसने से कहीं महत्त्वपूर्ण यह है कि हम अपनी व्यापक राष्ट्रीय सोच, पद्धति और शैली से जुड़े कुछ सबसे बड़े खतरों के प्रति स्वयं को सतर्क-सचेत करें।

असल में हम सुसंगत, स्व-पहल और स्व-प्रेरक कार्यों में विश्वास नहीं करते। सम्मानित अपवादों की बात अलग है।

परंतु जरा हमारे उद्यमों-व्यवसायों और गतिविधियों की उत्पादकता दर पर गौर कर लीजिए।

विशेष रूप से विनिर्माण के बारे में विचार कीजिए।

हम अधिकांशतः यही सोचते हैं कि हम दूसरे व्यक्ति का काम उससे बेहतर करने की स्थिति में हैं।

हम भारतीयों में दूसरों की पराजय को चुराने का अद्भुत गुण है। वर्षों तक आर्थिक सुधारों को लेकर डर का माहौल कायम रहा था।

हम अपनी 6.5 से 7 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि पर भी शायद आहृादित होंगे, क्योंकि यह विश्व में सबसे बेहतरीन है, लेकिन यदि पांच वर्षों का औसत निकालें तो यह करीब 3.5 प्रतिशत रह जाता है।

हम लॉकडाउन वाले वर्षों को दोष दे सकते हैं, लेकिन वृद्धि तो उससे पहले भी 5 प्रतिशत से नीचे गोता लगा चुकी है।

काफी कुछ अच्छा हुआ है।

गर्व करने और जश्न मनाने के लिए भी बहुत कुछ है। मगर अभी भी बहुत कुछ गड़बड़ है, जो हमें स्मरण कराती है कि अभी बहुत काम करना बचा है।

सुरेश बाहेती
9050800888