अतीत में अक्सर सरकारें खजाने के वास्तविक घाटा को छिपाने के लिए राजकोषीय बाजीगरी करती रही हैं। 1987 में अपना इकलौता बजट पेश करते हुए राजीव गांधी ने तेल पूल खाते में मौजूद अतिरिक्त रकम को खामोशी से सरकार की व्यय पूर्ति में इस्तेमाल कर लिया था। यह घाटे को कम दिखाने का चतुराई भरा कदम था।

कई वर्ष बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के वित्त मंत्री पलनिअप्पन चिदंबरम और उनके बाद आए प्रणव मुखर्जी ने 2005 से 2010 के बीच तेल कंपनियों को कीमत नहीं बढ़ाने के कारण हुए घाटे की भरपाई सीधे सब्सिडी देकर नहीं की बल्कि 1.34 लाख करोड़ रुपये के तेल बॉन्ड जारी कर दिए। उर्वरक कंपनियों के लिए भी इसी वजह से उर्वरक बॉन्ड जारी किए गए। इस तरह के बॉन्ड जारी करने की कोई जानकारी 2008-09 तक बजट में नहीं दी गई।

खुशकिस्मती से 2010-11 में यह राजकोषीय नासमझी बंद हो गई। परंतु खजाने पर इन बॉन्ड का बोझ ब्याज की शक्ल में आया, जो एक के बाद एक सरकारों को परेशान करता रहा। वर्तमान सरकार को भी यह बोझ उठाना पड़ा है।

मोदी सरकार ने भी सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए बॉन्ड जारी किए, जिस पर सवाल खड़ा किया जा सकता है। मगर उसने कम से कम खुलासा तो किया है और सभी को बताया है कि ब्याज और मूलधन चुकाने में अगले कुछ वर्षों तक कितनी रकम जाएगी।

जो भी हो आज के खर्च का बोझ भविष्य के वित्त मंत्रियों और सरकारों पर डालना राजकोषीय दृष्टि से गैर जिम्मेदाराना कदम होता है और बिना जानकारी दिए किया जाए तो और भी नुकसानदेह होता है।

उदाहरण के लिए एनएचएआई की स्थापना भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण अधिनियम के तहत की गई थी। यह बाजार से धन उधार लेता है और टोल संग्रह तथा अन्य प्रकार की आय से उसे चुकाता है। इसी प्रकार आईआरएफसी, भारतीय रेल के साथ पट्टे वाली अपनी व्यवस्था के जरिये, धन जुटाती है ताकि रेलवे की रोलिंग स्टॉक की जरूरतें पूरी की जा सकें। इसमें केंद्र के खजाने के लिए वित्तीय जोखिम साफ नजर आते हैं। अगर आईआरएफसी या एनएचएआई अपना कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं कर पाया तो उसे उबारने के लिए केंद्र सरकार को ही आगे आना होगा। इसका बोझ सरकारी खजाने पर ही पड़ेगा।

इसमें संदेह नहीं है कि बजट दस्तावेज में शामिल करने से इसके प्रति जागरूकता बढ़ेगी और उन लोगों को सावधानी बरतने का संदेश मिलेगा, जो आगे चलकर केंद्र में लोक वित्त संभालेंगे।