Highest agricultural land in world, what leaks our productivity

भारत में कृषि-भूमि की कमी नहीं है। यूएस जियोग्राफिकल सर्वे द्वारा जारी एक मानचित्र के अनुसार भारत में 179.8 मिलियन हेक्टेयर कृषि-भूमि है, जो दुनिया में सर्वाधिक है। इसकी तुलना में अमेरिका में 167.8 और चीन के पास 165.2 मिलियन ही है।

भारत में ऐसे खेतिहर 86 प्रतिशत हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है। उनके पास कुल 47.3 प्रतिशत कृषि-भूमि है। 2 से 10 हेक्टेयर जमीन वाले किसान 13.2 प्रतिशत हैं, जिनके पास 43.6 प्रतिशत कृषि-भूमि है। वहीं चीन में भूमिधारकों की जमीन का औसत आकार 0.6 हेक्टेयर ही है।

जब हम चीन की तुलना में भारत की उत्पादकता के आंकड़े देखते हैं तो यह तर्क स्वतः बेअसर हो जाता है कि छोटे आकार के भूमिधारकों के कारण भारत में कृषि को अव्यावहारिक पेशा माना जाता है। भारत की कृषि-उपज 407 अरब डॉलर की है, जबकि चीन की इससे तीन गुना से भी अधिक यानी 1,367 अरब डॉलर की।

चीन में प्रति हेक्टेयर 5810 किलो गेहूं का उत्पादन होता है, जबकि भारत में यह आंकड़ा केवल 3500 किलो ही है। चीन में गेहूं और चावल के लिए भूमि और श्रम उत्पादकता की समेकित विकास दर क्रमशः 3.75 प्रतिशत और 5.21 प्रतिशत है, जबकि उसी अवधि में भारत में यह 2.44 प्रतिशत और 2.96 प्रतिशत ही है।

इन दिनों हम बाजरा और दलहन की बहुत चर्चा सुनते हैं, जबकि भारत में उनकी उत्पादकता चीन के 5,470 और 1,533 किलो की तुलना में 1,591 और 699 किलो ही है। भारत की तरह चीन में भी ग्रामीण खेतिहर आबादी का प्रतिशत अधिक है, लेकिन बेहतर नीतियों के कारण वे हमसे तीन गुना अधिक उपज ले पाते हैं। दुनिया में सर्वाधिक कृषि-भूमि वाला देश होने के बावजूद हम विस्थापन, किसानों की आत्महत्या और गरीबी के कारण कम उत्पादन कर पाते हैं और उत्पादन की लागतें भी हमारे यहां अधिक हैं।

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भारत को लगता है कि खेती का कॉर्पाेरेटाइजेशन करने से उत्पादकता बढ़ेगी क्योंकि उससे खेतिहरों को अधिक आकार की कृषि-भूमि मिलेगी, जबकि चीन के यहां भारत की तुलना में खेतिहरों के पास छोटी भूमि होने के बावजूद उत्पादकता तीन गुना अधिक है। इसका कारण है सहकारिता।

ध्यान रखें कि भारत में उर्वरकों की खपत चीन से अधिक है। हमें समझना होगा कि चीन की उच्च उत्पादकता का मुख्य कारण पानी और उर्वरकों के न्यूनतम उपयोग से वैज्ञानिक तरीके से खेती करना है। साथ ही वह किफायती दरों पर उपज की आपूर्ति भी करता है और उसके यहां हमारी कृषि मंडियों जैसे प्रणालीगत मार्केटिंग स्थान होते हैं।

हमारी समस्या यह है कि हमें कृषि विश्वविद्यालयों, किसानों और बाजार को उपभोक्ताओं से लिंक करने वाली समग्र एप्रोच चाहिए। ऐसे में हमारा फोकस कॉर्पाेरेटाइजेशन के बजाय सहकारिता पर होना चाहिए। हमें ऐसे खेतिहर-समूहों को पहचानना चाहिए, जो किफायती दरों पर बेहतरीन उपज प्राप्त करने में सक्षम हों।

कितनी अजीब बात है कि हमारे यहां पहले कृषि-लागत पर टैक्स लगाया जाता है और फिर उस पर सब्सिडी दी जाती है! साथ ही हमें कृषि विज्ञान केंद्रों को सशक्त करने की भी जरूरत है। हमें इंजीनियरों के बजाय अधिक कृषि-स्नातकों की आवश्यकता है। साथ ही सिंचाई, बीजों और मिट्टी प्रबंधन के क्षेत्र में सुधार करना होगा।

देखें कि पंजाब के किसान कैसे चावल के बजाय अन्य फसलें लेने लगे हैं। रूखी धरती के लिए मोटे अनाज पर जोर देना होगा और पानी का ऐहतियात से उपयोग करना होगा। आईटीसी और दावत जैसे सहकारी-समूहों की सफलता हमारे लिए एक उदाहरण होनी चाहिए। सभी फसलों पर एमएसपी और मंडियों का सशक्तीकरण भी जरूरी है।

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