भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के उल्लेखनीय चार कलस्टर है इनका श्रेय 1000 से अधिक वैश्विक क्षमता केंद्रों (जीसीसी) को जाता है, जिन्हें विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में स्थापित किया है। यह केंद्र प्रत्यक्ष सहायक के रूप में या भारतीयों द्वारा अपने वैश्विक ग्राहकों के लिए संचालित आउटसोर्स कार्य केंद्रों के रूप में कार्य करते हैं।

शायद ही कोई भारतीय कंपनी भारत में अपने स्वयं के क्षमता केंद्र स्थापित कर रही हो। आखिर क्यों भारतीय कंपनियां अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करने से कतराती हैं?

भारतीय अनुसंधान एवं विकास पर बहुत कम खर्च करते हैं। उनमें इस क्षेत्र में आगे बढ़ने की चाहत ही नहीं है। कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय इस क्षेत्र में दूनिया में खासे पीछे हैं।

भारत अनुसंधान एवं विकास पर सकल घरेलू उत्पाद का 0.7 प्रतिशत से भी कम खर्च करता है। इसके विपरीत, यह आंकड़ा, दक्षिण कोरिया के लिए लगभग 5 प्रतिशत, चीन के लिए 2.43 प्रतिशत, जापान के लिए 3.3 प्रतिशत, जर्मनी के लिए 3.14 प्रतिशत और अमेरिका के लिए 3.4 प्रतिशत है।

भारत में शोध एवं अनुसंधान पर होने वाले खर्च का लगभग 60 प्रतिशत सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किया जाता है। निजी क्षेत्र की भागीदारी तो बस सकल घरेलू उत्पाद का 0.26 प्रतिशत है।

जीएलएल 2023 की रिपोर्ट में पाया गया है कि रिसर्च एवं अनुसंधान के प्रति गंभीर शीर्ष 2,500 वैश्विक कंपनियों में से 1,700 के लिए, कुल व्यय 2021 में $1 ट्रिलियन को पार कर गया, और 2018 में टर्नओवर के 3.9 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 4.5 प्रतिशत हो गया। सॉफ्टवेयर हार्डवेयर और फार्मा उद्योगों के प्रबध्ंक अपने टर्नओवर का लगभग पाँचवाँ हिस्सा रिसर्च एवं शोध पर खर्च करते हैं। भारत में शायद ही ऐसी कोई कंपनी है, जो अपने टर्नओवर का एक प्रतिशत भी रिसर्च और अनुसंधान पर खर्च करती हेा।

भारतीय कंपनियों को रिसर्च और अनुसंधान के प्रति यह उदासीनता क्यों है?

इसका कोई तार्किक जवाब नहीं मिलता।

नकल के लिए पर्याप्त मौकेकिसी मौजूदा व्यवसाय मॉडल या तकनीक को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार संशोधित करके अनुकूलित कर अच्छा पैसा कमाने के यहां बहुत सारे तरीके हैं। ऐसे में भला कोई क्यों कुछ नया बनाने पर पैसा खर्च करेगा। इसलिए रिसर्च और अनुसंधान पर होने खर्च को वह व्यर्थ मानते हैं।

पूंजी की समस्याः पूंजी की कमी भी इस दिशा में एक बड़ी बाधा होती है। यहां तक कि भारत में निवेश करने वाले भी उन व्यावसायिक मॉडल और प्रौद्योगिकियों से जल्दी पैसा कमाना चाहते हैं जो दुनिया में कहीं और लाभदायक रूप से काम कर रही होती है। नवाचार के लिए आर्थिक मदद नहीं मिलती हम बने बनाए सिस्टम पर ही काम करते रहते हैं।

सवाल मत उठाओः हमारा सामाजिक तानाबना ऐसा है कि यहां सवाल उठाने को अलोचनात्मक नजरीए से देखा जाता है। जो पहले से चल रहा है, उस पर सवाल उठाना अच्छा नहीं माना जाता। जैसे शिक्षक पढ़ाता है, छात्र बिना सवाल किए सीखता है।

अंग्रेजी भाषा की सर्वश्रेष्ठताः अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाला अपने आप को दूसरे माध्यम से पढ़ने वाले से श्रेष्ठ मानता है। इससे गैर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वालों में एक प्रकार की हीन भावना पनप जाती है। अब यदि उसके पास कोई ज्ञान है, तो भी उसके ज्ञान को तवज्जों नहीं मिलती।

इससे बचने के लिए सामाजिक ताने बाने में बुनियादी बदलाव करते हुए एक नया परिवेश बनाते हुए भारत के लाखों लोगों की ज्ञान क्षमता को उजागर कर सकते हैं।

TK Arun