Neglect of Behavioral economics
- नवम्बर 14, 2022
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Any corrective in India must start by seeking the reason why bug data is being applied to microeconomics?
The result of the neglect of behavioral economics in India is that the policy-making apparatus of the government or, for that matter, even a large corporation, has very little idea of how to potential consumers of the new Yojanas-or products-will respond.
Or take tax policy. The government continues to tax individuals only on the basis of income but without reference to how the expenditure patterns of those individuals have changed.
Unlike in the past when fixed costs-rent, food, education and health-of a family might have constituted 50-55 per cent of the income, today they constitute upward of 80 per cent.
An increasing proportion of this additional 30 per cent is transport and communication, entertainment, and energy. These used to be variable of price elastic. Now they are not.
This has had a direct impact on the household saving rate, which has naturally been dropping for over 15 years. If 95 per cent of your income is spoken for in one way or another-high fixed costs plus high taxes-how much can you save?
The thing is that the savings and expenditure patterns of households have a string sociological basis, namely, the urban nuclear family. No one has studied their economics.
Our economists have not studied all this even though the data is available. So the bureaucrats in the finance ministry have been carrying on as if nothing has changed.
Net, personal income tax policy is no longer informed by modern economics. Old ideas contained in the heads of old economists still dominate. That’s not good.
TCA Srinivasa Raghavan
व्यवहरात्मक अर्थशास्त्र की अनदेखी
भारत में कोई भी सुधार इस तलाश के साथ शुरू होना चाहिए कि आखिर वृहद अर्थव्यवस्था में भारी भरकम आकंडों को क्यों आजमाया जा रहा है?
भारत में व्यवहारात्मक अर्थशास्त्र की अनदेखी का परिणाम यह हुआ कि सरकार के नीति निर्माण संबंधी उपकरण और यहां तक कि एक बडे़ निकाय के पास भी इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि नई योजनाओं या उत्पादों के संभावित उपभोक्ता किस प्रकार की प्रतिक्रिया देंगे।
या फिर कर नीति की बात करते हैं। सरकार लोगों पर उनकी आय के स्तर के आधार पर कर लगाना जारी रखे हुए हैं जबकि इस बारे में कोई जिक्र नहीं किया जाता है कि उन लोगों की खपत के रूझान में किस प्रकार बदलाव आया है।
अतीत में जहां तयशुदा लागत यानी किराया, भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि पर एक परिवार की आय का 50-55 फीसदी हिस्सा खर्च हो जाता था, वहीं आज यह 80 फीसदी से अधिक हो चुका है।
इस 30 फीसदी के अतिरिक्त हिस्से में परिवहन और संचार, मनोरंजन और ऊर्जा आदि की भागीदारी है। ये एक जमाने में इनके स्वीकार्य विकल्प मौजूद थे लेकिन अब ऐसा नहीं है।
इसका सीधा असर आम परिवारों की बचत दर पर पड़ता है जिसमें बीते 15 वर्षों से लगातार गिरावट आ रही है। अगर आपकी आय का 95 प्रतिशत हिस्सा किसी न किसी प्रकार खर्च ही हो जाए तो आप कितनी बचत कर पाएंगे?
बात यह है कि परिवारों की बचत और व्यय के रूझानों का एक तगड़ा समाजशास्त्रीय आधार होता है। मिसाल के तौर पर शहरी एकल परिवारों की बात करें तो किसी ने उनकी आर्थिकी का अध्ययन नहीं किया है।
हमारे अर्थशास्त्रियों ने आकंडे़ उपलब्ध होने के बाद भी इनका अध्ययन नहीं किया। ऐसे में वित्त मंत्रालय के अफसरशाहों ने ऐसा व्यवहार जारी रखा मानो कुछ भी नहीं बदल हो।
कुल मिलाकर देखें तो व्यक्तिगत आय कर नीति भी आधुनिक अर्थव्यवस्था से सूचित और सुसज्जित नहीं है। बुजुर्ग अर्थशास्त्रियों के मस्तिष्क के पुराने विचार अभी भी अपना दबदबा कायम रखे हुए हैं। यह अच्छी बात नहीं है।
टीसीए श्रीनिवास राघवन