अर्थशास्त्रियों के लिए, सभी जटिल समस्याओं का समाधान एक ही है, इसे बाज़ार पर छोड़ दो। उनका मतलब पूंजीवाद में बाजारों के लिए खुली स्वतंत्रता है। यहां जो जितना पैसे वाला है, वह उतना ही प्रभावशाली माना जाएगा। उसे अधिकार है कि वह अपने पैसे का कैसे इस्तेमाल करना चाहता है? उन्हें यह भी अधिकार मिलना चाहिए है कि वह अपनी पूंजी का इस्तेमाल अधिक से अधिक संग्रह करने के लिए कर सकें समाज कल्याण के लिए कुछ भी खर्च ना करते हुए।

2008 में वैश्विक वित्तीय संकट ने अर्थव्यवस्थाओं की कई कमजोरियों को उजागर किया। अमेरिका और ब्रिटेन में स्वतंत्र वित्तीय बाजारों में अतार्किक उत्साह ने अर्थव्यवस्थाओं को बाधित कर दिया था। 2009 में एक विकास रिपोर्ट के अनुसार उदार बाजार सिद्धांत बताते हैं कि आर्थिक विकास को कैसे तेज किया जाए? वे यह नहीं बताते कि विकास को समावेशी कैसे बनाया जाए? विकास के इस मॉडल में माना जाता है कि कि वृहद विकास में हर कोई तरक्की करता है, और जैसे-जैसे धन जमा होगा, इसका असर नीचे तक जाएगा। लेकिन यह प्रभाव स्वयं नहीं होता।

1980 के दशक से प्रचलित नीतियों ‘‘इसे बाज़ार पर छोड़ दो और सरकार को रास्ते से हटा दो‘‘ की विचारधारा के साथ 1990 के दशक से धन ऊपर की ओर बह रहा था। बाज़ार एक प्राचीन विचार है। शेयर बाज़ारों और वित्तीय व्यापार से सदियों पहले लोग बाज़ारों में कई चीज़ों का व्यापार करते थे।

21वीं सदी के अर्थशास्त्र में इस बात का कोई सिद्धांत नहीं है कि विकास में सभी को भागीदार कैसे बनाया जाए? पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में, सब कुछ पैसे के लिए खरीदा जा सकता है। जिसे खरीदार अपनी संपत्ति के तौर पर जमा कर सकता है। जिसका वह अपनी इच्छानुसार उपयोग कर सकता है। भूमि, खनिज संसाधन और वन वित्तीय बाज़ारों में वस्तुएँ बन जाते हैं। उनके मालिक अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिए इसका उपयोग अपने तरीके से कर सकते हैं। जब उनकी मर्जी होगी, वह इसे बेच सकते हैं।

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लेकिन श्रम बाज़ार में मनुष्य कोई वस्तु नहीं है। उनके द्वारा किए गए कार्य को सम्मान की नजर से देखा जाना चाहिए। तभी वह खुद को सम्मानित महसूस करेंगे।

क्योंकि यूं भी जहां पैसे के बदले इंसान को बेचा या खरीद जाता है, वह गुलाम बाज़ार है। लेकिन ठेकेदारी प्रथा में श्रम एक वस्तु है। इसकी कीमत पर उन श्रमिकों और काम देने वाले के बीच समझोता होता है। उन्हें मुनाफा कमाने के लिए श्रम करने वाले लोग चाहिए।

बाज़ारों में प्रत्येक नागरिक एक ग्राहक है। साथ ही, प्रत्येक उपभोक्ता एक इंसान है, जिसकी अपनी जरूरत है। जिसे अपनी जेब में सामान खरीदने के लिए पर्याप्त रूपयों की आवश्यकता होती है। अब यदि नागरिकों के पास पर्याप्त कमाई के लिए अच्छी नौकरियाँ या रोजगार नहीं हैं, तो आंतरिक बाज़ार विकसित नहीं होंगे। आधुनिक अर्थशास्त्री यह स्वीकार नहीं कर पाते कि समाज और वास्तविक अर्थव्यवस्था कैसे कार्य करती हैं?

पिछली सदी के अंत तक, मुक्त बाज़ार एक विचारधारा बन गया। मुक्त बाजार पूंजीवाद और निरंकुश व्यापार अर्थशास्त्र बन गया। अदृश्य हाथ के पीछे पूंजी की ताकत है। पूंजी के अधिकार और उसकी स्वतंत्रता दुनिया भर में घूमकर अधिक मुनाफा कमाती है, जो सीमाओं के पार जाने और सुरक्षित जीवन की तलाश करने वाले मनुष्यों के अधिकारों पर भारी पड़ती है।

ऐसे में पूंजीवाद में मानवता को वापस लाने के लिए एक नए अर्थशास्त्र का समय आ गया है।


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