Root Cause Analysis for the Power Crisis
- जुलाई 7, 2022
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Electricity shortages are due to government involvement in resource allocation
There is Surge in electricity consumption due to heat wave. In the short term, rescuing from the situation is about deploying intelligence and effort within the present paradigm. But we also need to step out of the box thinking.
The market works because it is in the centre of the market economy. There are multiple profit-seeking Businessmen, although they are self-interested. They make forecasts, ahead of the time, what the demand might be. They lock down the supply of raw materials and arrange production capacity and take risks of overestimating demand, price fluctuations, and bear losses when their bets go wrong. Because there is no government system in the picture.
The problems with electricity is the lack of a market, the generous application of the coercive power of the state. State control has removed the incentives for private persons to supply more and demand less. The good result is the quaint term from the good old days of socialism: A shortage.
Suppose, A factory has a captive gas- based thermal generating plant and the option of buying from the grid. After the invasion of Ukraine, the world price of gas went up. Now, it is beneficiary for the factory to shut down the captive plant and buy electricity from the grid. What is going wrong here? There is a market- based price on one side (no official is involved in determining the world price of gas), while there is a fixed price on the other side (the shortage of electricity cannot increase the rates of electricity).
The market for coal has been artificially segmented by India into two distinct markets, domestic coal and imported coal. There are specialized “imported coal thermal plants “that only generate electricity with imported coal and sell electricity. The trouble is they have 25 year lock-in prices for electricity. When the price of coal goes up, they stand to make a loss either by operating the plant or prefer to shut down the plant. The flaw here is again the fixed price. The coal sector is not a market, it is a centrally planned economy.
The only way in which a prosperous economy can be organized is through the price system, with profit- motivated firms figuring out how to extract, store, import and transport coal.
When there is a shortage, the prices go up. This is the key to the required economic adjustment. High prices offer profit opportunities, which trigger technical change.
A centrally planned system lacks these self- correcting mechanisms; it is world of obedient persons waiting for instructions from officials. So, instead of private power plants having the freedom to respond to market signals, when we are deep into the coal shortage, we had government ordering “imported coal- based power plants “to switch on.
To solve problems of production in the modern economy requires millions of minds orchestrated by the price system.
The present crisis is a call to action for policy reforms that will remove government involvement in production, consumption, technical designs, and price formation. In the short term, we are in the central planning paradigm, and there is no way out. But we should look deeper, beyond tactical questions, into root cause analysis. Strategic thinking is required today to lay better foundations for the heat waves of coming years.
The private sector has infinite tenacity and energy; which can run the Indian electricity sector also. The state apparatus in electricity needs to switch its system.
This is a unique moment in India’s history. The Indian electricity sector is at breaking point through the forces of the global warming, heat waves, the carbon transition, financially unviable discoms, etc. Alongside this, the climate of opinion in India has shifted. Air India has been privatised, public sector bank privatization is on the cards. Now, for the first time, genuine electricity reform is feasible.
बिजली संकट की असल वजहों का विश्लेषण
देश में बिजली की कमी के लिए बुनियादी तौर पर संसाधनों के आवंटन में सरकार की भागीदारी एक अहम वजह है।
तपती गर्मियों में बिजली की मांग में भारी इजाफा हुआ है। अल्पावधि में हालत से निपटने का तरीका यह है कि मौजूदा व्यवस्था में ही समझदारी से प्रयास किए जाएं। परन्तु इसके साथ ही हमें अपने सोच को भी विस्तार देना होगा।
बाजार इसलिए काम कर रहा है क्योंकि यह बाजार अर्थव्यवस्था के बीचोबीच है। कई मुनाफा कमाने वाले कारोबारी यहाँ मौजूद है। इसमें उनके अपने हित है। वे समय से पहले भविष्यवाणी करते है कि आने वाले दिनों में कितनी मांग हो सकती है। वे कच्चे माल की आपूर्ति और उत्पादन क्षमता को निर्धारित करते है। वे मांग के अतिरिक्त अनुमान, कीमतों में उतार-चढ़ाव का जोखिम उठाते हैं और दांव उलटा पड़ने पर वे नुकसान भी उठाते हैं। क्योंकि इस प्रक्रिया में कोई सरकारी तंत्र शामिल नहीं होता।
बिजली के साथ दिक्कत यह है कि उसमे बाजार का अभाव है, राज्य के पास अपनी शक्ति इस्तेमाल करने का अवसर है। सरकारी नियंत्रण ने निजी कारोबारियों से अधिक आपूर्ति और कम मांग का लाभ छीन लिया है। इसका परिणाम समाजवादी अतीत के एक अजीब से शब्द के रूप में सामने आता है: कमी।
मान लीजिए एक फैक्टरी के पास अपना गैस आधारित ताप बिजली संयंत्र है और उसके पास ग्रिड से बिजली खरीदने का विकल्प भी है। यूक्रेन के आक्रमण के बाद दुनिया भर में गैस कीमतों में इजाफा हुआ। अब फैक्टरी के लिए यही उपयुक्त है कि वह अपना निजी संयंत्र बंद करके ग्रिड से बिजली ख़रीदे। यहां क्या गड़बड़ी है? एक चरण में बाजार आधारित मूल्य है (गैस की वैश्विक कीमतों के निर्धारण में कोई सरकारी तंत्र शामिल नहीं है) जबकि दूसरे चरण में तयशुदा कीमत है (बिजली की कमी से बिजली की कीमत नहीं बढ़ायी जा सकती)
भारत सरकार ने कोयले के बाजार को कृत्रिम ढंग से दो अलग-अलग बाजार में बांटा हुआ है। यह है घरेलु कोयला और आयातित कोयला। हमारे यहाँ विशेष ‘आयातित कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्र’ मौजूद है जो केवल आयातित कोयले से बिजली बनाते हैं और उसे बेचते हैं। दिक्कत यह है कि उनकी बिजली की कीमत 25 वर्षाे के लिए लॉक है। जब कोयला महंगा होता है तो उन्हें संयंत्र के संचालन में नुकसान होता है और वे उससे बंद करने को तरजीह देते है। यहां फिर एक बार समस्या तयशुदा कीमत की है। कोयला क्षेत्र बाजार नहीं है। यह एक केंद्रीय नियोजन वाली अर्थव्यवस्था है।
एक समृद्ध अर्थव्यवस्था को संगठित करने का इकलौता तरीका मूल्य व्यवस्था के तहत ही है। जहां मुनाफा केंद्रित फर्म यह पता लगाती है कि कैसे कोयले का उत्खनन, भंडारण, आयत और परिवहन किया जाए।
जब भी कमी होती है तो कीमतें ऊपर जाती है। यह बुनियादी आर्थिक समायोजन है। ऊँची कीमतों को अधिक आपूर्ति प्रतिक्रिया मिलती है। बढ़ी हुई कीमते मुनाफे का अवसर लेकर आती है जिससे तकनीकी बदलाव को गति मिलती है।
केंद्रीय नियोजन वाली व्यवस्था में इन स्वसुधार उपायों का अभाव होता है। यह दुनिया अनुशासित लोगो की दुनिया है जो अधिकारियो के निर्देश की प्रतीक्षा करते रहते है। ऐसे में निजी बिजली संयंत्रों को बाजार के संकेतो की स्वतंत्रता देने का अवसर देने के बजाय जब कोयला भंडारण की कमी हो जाती हैं तो सरकार आयातित कोयला आधारित संयंत्रों को चालू करने का निर्देश देती दिखती है।
आधुनिक अर्थव्यवस्था में उत्पादन की समस्या को हल करने के लिए लाखों मस्तिष्क की आवश्यकता होती है जो मूल्य व्यवस्था से संचालित होते हैं।
मौजूदा संकट नीतिगत सुधारों का आह्वान करता है जो उत्पादन, खपत, तकनीकी डिजाइन और मूल्य निर्धारण में सरकारी सहभागिता को समाप्त कर देंगे। अल्पावधि में हम केंद्रीय नियोजन व्यवस्था में है और इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है। परंतु हमे रणनीतिक प्रश्नों से परे गहरायी से नजर डालनी चाहिए और समस्या की जड़ का विश्लेषण करना चाहिए। आज रणनीतिक विचार की आवश्यकता है ताकि आने वाले वर्षों में चलने वाली गर्म हवाओ से निपटने के लिए बेहतर बुनियाद रखी जा सके।
निजी क्षेत्र के पास असीमित ऊर्जा है और वे देश के बिजली क्षेत्र को भी संचालित कर सकते हैं। सरकारी बिजली व्यवस्था को भी इसी अनुसार बदलाव करने की आवश्यकता है।
यह भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट क्षण है। भारतीय विद्युत क्षेत्र वैश्विक तापवृद्धि, लू के थपेड़ो, कार्बन उत्सर्जन आदि के कारण बहुत दबाव में है। वित्तीय रूप से अव्यवहार्य हो चुकी वितरण कंपनियों के कारण हालात और बिगड़ चुके हैं। इसके अतिरिक्त भारत में वैचारिक बदलाव भी आ चुके हैं। एयर इंडिया का निजीकरण किया जा चूका है, सरकारी बैंको का निजीकरण चल रहा है। अब पहली बार बिजली क्षेत्र में वास्तविक सुधारों का भी वक्त आ गया है।