Solid laws are needed for land ownership

कृषि क्षेत्र को कुछ सुधारों की तत्काल आवश्यकता है। इनमें से एक जमीन के पट्टे को वैध बनाने से संबंधित है। भूस्वामियों और पट्टे पर खेती करने वालों के बीच उचित सुरक्षा तय करने के लिए जमीन के पट्टे को कानूनी मान्यता प्रदान करना आवश्यक है। जमीन मालिक और जमीन किराये पर लेने वालों के हितों और अधिकारों का ध्यान रखना और उनकी रक्षा करने वाली सांविधिक व्यवस्था बनाना आवश्यक है।

2018-19 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार दो लाख से भी कम किसानों के पास अब 10 हेक्टेयर से अधिक खेत हैं। जबकि 85 फीसदी से अधिक भारतीय किसान छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम खेत हैं। कृषि जोत का औसत आकार घटकर 1.1 हेक्टेयर रह गया है।

अधिकांश छोटे और सीमांत किसानों को जमीन पट्टे पर लेने की व्यवस्था को आधिकारिक मान्यता नहीं होने के कारण उन्हें अनौपचारिक रूप से ऐसा करना पड़ता है और यह काम प्रायः अलिखि​त या मौखिक अनुबंध के आधार पर होता है। इसे कोई कानूनी समर्थन हासिल नहीं होता है। ऐसी व्यवस्था जमीन के मालिकाने को लेकर कोई दीर्घकालिक सुरक्षा मुहैया नहीं कराती है और ऐसा कोई प्रोत्साहन भी नहीं होता है जो जमीन में सुधार के उपायों मसलन जमीन को समतल करने, ट्यूब वेल स्थापित करने या दिक्कतदेह जमीन में सुधार आदि की प्रेरणा देता हो।

इसके अलावा कई भूस्वामी अपने खेतों को इस डर से पट्टे पर नहीं देते कि कहीं उनका मालिकाना हक न छिन जाए। कई राज्यों में ऐसे कानूनी प्रावधान भी हैं जो एक खास अवधि के बाद खेती करने वाले को ही जमीन का स्वामित्व सौंप देते हैं।

इसकी वजह से बहुत बड़ी संख्या में खेती की जमीन बिना इस्तेमाल के यूं ही पड़ी रहती है जबकि उसे किसी को पट्टे पर दिया जा सकता है। जमीन को पट्टे पर देने को वैध बनाना कई और वजहों से आवश्यक है। उदाहरण के लिए यदि ऐसा किया गया तो पट्टे पर जमीन लेकर खेती करने वालों को केंद्र और राज्य सरकारों की विभिन्न किसान कल्याण योजनाओं का लाभ मिल सकेगा। ज्यादातर सब्सिडी जो प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण के रूप में दी जाती हैं वे भी पट्टे पर खेत लेने वालों को नहीं मिलतीं बल्कि खेत मालिक को मिलती हैं।

इसके अलावा मौजूदा भूमि कानूनों की बात करें तो अधिकांश राज्यों में वे बहुत प्रतिबंधात्मक प्रकृति के हैं। कई राज्यों में जमीन को पट्टे पर देने पर लगभग रोक है। कुछ राज्यों ने पट्टे के किराये की सीमा तय कर रखी है जिससे यह प्रक्रिया ही अनाकर्षक हो गई है। ऐसे तमाम प्रतिबंध स्वस्थ भू-पट्टा बाजार के विकास को बाधित करते हैं।

केंद्र सरकार ने राज्यों के सामने एक आदर्श भू पट्टेदारी अधिनियम पेश किया जिसे नीति आयोग द्वारा गठित एक समिति ने 2016 में तैयार किया था। राज्यों को इसी के आधार पर अपने स्थानीय कानूनों में सुधार या बदलाव करना था। इस मसौदे के माध्यम से भूस्वामियों और पट्टेदारों दोनों के हितों की रक्षा करते हुए ऐसा माहौल तैयार करना था जहां भूमि पट्टेदारी का बेहतर बाजार तैयार हो सके।

इसमें भूमि सुधार के उपायों को प्रोत्साहन देने की बात भी शामिल थी। कोशिश यही थी कि खेतों की जोत को आर्थिक रूप से व्यावहारिक बनाया जाए। बहरहाल, ज्यादा राज्यों ने इस मॉडल को गंभीरता से नहीं लिया।