
कारोबार में अनुपालन नहीं विश्वास बहाली बेहतर
- जनवरी 11, 2025
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कोई समाज कितना विकसित है उसका पता इस बात से चलता है कि सरकार अपने नागरिकों, कारोबार और संस्थाओं में कितना भरोसा करती है। यह भरोसा या उसकी कमी सरकार के तंत्र और प्रक्रियाओं में भी दिखाई देती है।
किसी भी कागजी कामकाज के लिए दस्तावेजों का सत्यापन अनिवार्य किया जाना विश्वास की इसी कमी की ओर इशारा करता है। सरकार और जनता अविश्वास का दूसरा उदाहरण है जब कोई आवेदन करने पर अक्सर अनावश्यक जानकारी मांगी जाती है। यह जानकारी यही मानकर मांगी जाती है कि आवेदन करने वाला कुछ न कुछ छिपा रहा होगा।
विभिन्न स्तरों पर सख्त निगरानी से यह भी लगता है कि कर्मचारियों की ईमानदारी और उनकी कुशलता पर संदेह या अविश्वास है। अपेक्षित परिणामों पर अधिक ध्यान देने के बजाय प्रक्रिया पर जोर इस पूर्वाग्रह का संकेत है कि कोई व्यक्ति बिना सख्त निर्देश और निगरानी के पूरी ईमानदारी और नैतिकता के साथ काम नहीं कर सकता।
विश्वास से क्षमता बढ़ती है, नियामकीय दबाव कम होता है और सामाजिक स्तर पर परिस्थितियां सबल होती हैं। विश्वास पर आधारित तंत्र में कागजी तामझाम, निगरानी के विभिन्न स्तर और लालफीताशाही कम हो जाती है, जिससे प्रशासनिक व्यय भी कम हो सकता है। इससे सरकार को वृद्धि को गति देने तथा नवाचार में निवेश करने के अधिक अवसर मिलेंगे। भरोसा दिखाया जाए तो निष्पक्ष तथा पारदर्शी तंत्र के जरिये लोग खुद ही अनुपालन करते हैं, सोच समझकर जोखिम लेते हैं, नवाचार बढ़ता है और नियम-कायदों का पालन किया जाता है।
अंग्रेजी हुकूमत स्थानीय विरोध को दबाने और अपना वर्चस्व कामय रखने के लिए सबको संदेह की निगाह से देखती थी और उन पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए नए हथकंडे अपनाती थी। आजादी के बाद भी भारत के कानून एवं प्रक्रियाएं अंग्रेजी तंत्र पर ही आधारित रहे और अविश्वास की मानसिकता हर स्तर पर बढ़ती गई।
दो शताब्दियों की अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हम स्वयं अविश्वास के आदी हो चुके थे, जो नए निजाम में और भी बढ़ता गया। नतीजतन पेचीदा नियामकीय व्यवस्था, कागजी औपचारिकताओं का झमेला और कई स्तरों पर नजर रखने का सिलसिला शुरू हो गया। इनमें आंतरिक एवं बाहरी ऑडिट, निगरानी प्रकोष्ठ, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, संसदीय समितियां, केंद्रीय सतर्कता आयोग, केंद्रीय जांच ब्यूरो, लोकपाल, लोकायुक्त, न्यायिक इकाइयां, क्षेत्रवार नियामक, सूचना का अधिकार कानून और न जाने क्या क्या शामिल है। इनका उद्देश्य जवाबदेही पक्की करना है मगर असल में ये कर्मचारियों पर और निगरानी तंत्र पर भी गहरे अविश्वास की तरफ इशारा करते हैं। इसी अविश्वास ने परिणामों के बजाय अनावश्यक औचारिकताओं को प्राथमिकता देने की सोच गहरी कर दी है।
कुछ बड़े कारोबारों में बड़े फर्जीवाड़े ने अविश्वास और बढ़ा दिया है, जिसके नतीजे में पेचीदा और भारी भरकम नियामकीय तंत्र सामने आया है।
नरेंद्र मोदी के शासन में सरकार ने नागरिकों में विश्वास बहाल करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण सुधार शुरू किए। शपथ पत्र की जगह स्व-अभिप्रमाणन की शुरुआत हुई और राजपत्रित अधिकारियों से सत्यापन की जरूरत खत्म कर दी गई। आवेदन एक पृष्ठ में सिमट गया और फालतू प्रश्नों से निजात मिल गई।
अजय कुमार
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