भारत का नया दिवालिया कानून कितना कारगर?
- मार्च 12, 2019
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भारत का नया दिवालिया कानून कितना कारगर?
अगर कानून की खामियां दूर नहीं की गईं तो ऋणदाताओं को फंसे ऋणों के समाधान के लिए लंबे समय तक इंतजार करना होगा। इस बारे में बता रहे हैं तमाल बंद्योपाध्याय एक बड़े बैंक के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) ने अगस्त 2016 में भारत का नया दिवालिया कानून-ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) आने पर बेहद खुशी जताई थी। भारी फंसे कर्जों के तले दबे इस बैंक के सीईओ ने अपने एक साथी से पूछा कि नए कानून के तहत फंसे कर्ज के निपटान में कितने दिन लगेंगे। उस बैंकर का जवाब था-1,800 दिन। यह अवधि कानून के तहत निर्धारित समय से 10 गुना अधिक थी। निस्संदेह यह निराशाजनक रवैया तारीफ के काबिल नहीं था। अब ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया समाधान प्रक्रिया की प्रगति को देखते हुए सीईओ (अब सेवानिवृत्त) को अपनी राय बदल लेनी चाहिए और अपने साथी को ‘भविष्यवक्ता’ नाम देना चाहिए। इस कानून से ऋणग्रस्त संपत्तियों के परिसमापन एवं समाधान की लागत और समय घटने की संभावना है। नए कानून के तहत आईसीआईसीआई बैंक ने एक इस्पात उत्पादक कंपनी के खिलाफ पहला मामला दायर किया था। इस इस्पात कंपनी पर बैंक का 955 करोड़ रुपये का कर्ज था। तब से अब तक कम से कम 10,000 मामले दायर किए जा चुके हैं, लेकिन ऐसे मामलों की सुनवाई करने वाले राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के केवल 13 पीठ हैं। वित्तीय ऋणदाता और परिचालन ऋणदाता एक लाख रुपये से अधिक के डिफाॅल्ट के किसी भी मामले को एनसीएलटी में ले जा सकते हैं। अपर्याप्त बुनियादी ढांचा उन बहुत से कारणों में से एक है, जिसकी वजह से मामला 180 दिन और कानून द्वारा निर्धारित 270 दिन की सीमा में निपट नहीं पाता है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के कहने पर दिसंबर में बैंकर जिन 28 डिफाॅल्टरों के खिलाफ दिवालिया अदालत में गए थे, उन्हें एक साल पूरा हो चुका है। इन मामलों के निपटान को तो भूल जांए, सभी मामले ही एनसीएलटी ने स्वीकार नही किए हैं। आरबीआई ने जून 2017 में 12 डिफाॅल्टरों की सूची बनाई थी। कंेद्रीय बैंक चाहता था कि इन 12 डिफाॅल्टरों के खिलाफ जल्द से जल्द दिवालिया प्रक्रिया शुरू हो। इसके बाद अगस्त, 2017 में 28 डिफाॅल्टरों की एक अन्य सूची जारी की गई। इन सूचियों में शामिल डिफाॅल्टरों की सम्मिलित रूप से भारतीय बैंकिंग प्रणाली के 10 लाख करोड़ रुपये के फंसे कर्जों में करीब 50 फीसदी हिस्सेदारी है। हाल में एक अदालती सुनवाई के दौरान एक मामले के संबंध में रोचक टिप्पणी की गई। इस मामले में डिफाॅल्टर अदालत गया था। डिफाॅल्टर ने सवाल किया, ‘हम किसी व्यक्ति को मृत्यु दंड कब देते हैं? सुनियोजित हत्या जैसे जघन्य अपराध के लिए। आम तौर पर भाड़े का हत्यारा महज पैसे के लिए यह काम करता है। अगर उस व्यक्ति को फांसी पर लटका दिया जाता है तो उसके परिवार-उसकी बेगुनाह पत्नी और इस अपराध से अनजान स्कूल जाने वाले बच्चों के साथ क्या बरताव किया जाता है? क्या हमें उन्हें समाज से बहिष्कृत करना चाहिए या उनके जीवन को पटरी पर लाना चाहिए? क्या किसी कारोबारी असफलता को हत्या से ज्यादा गंभीर माना जाना चाहिए? इन मामलों की सुनवाई अदालतों में होती रहेगी, लेकिन ऐसी टिप्पणी उस कानून को नया आयाम देती है, जो एक संशोधन के जरिये बैंक डिफाॅल्टर से जुड़े लोगों को ऐसी संपत्तियों की बोली लगाने से रोकता है। हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि कानून को दुरस्त बनाने की प्रक्रिया लंबे समय तक चलेगी। जब डिफाॅल्टर की पहचान हो जाती है तो ऋणदाताओं की समिति (सीओसी) मामले की देखभाल के लिए समाधान पेशेवर (आरपी) की नियुक्ति करती है। अगले चरण में सूचना पत्र तैयार किया जाता है और संभावित बोलीदाओं से तथाकथित अभिरूचि पत्र आमंत्रित किए जाते हैं। बोलीदाताओं की पात्रता जांचने और बोलियो का मूल्यांकन करने के बाद ऋणदाताओं की समिति एनसीएलटी जाती है। आम तौर पर ऋणदाताओं की समिति परिचालन ऋणदाताओं पर वित्तीय कर्जदाताओं के हितों को तरजीह देती है। परिचालन ऋणदाताओं में पंूजीगत वस्तुओं के आपूर्तिकर्ता, मूल उपकरण विनिर्माता, मरम्मत करने वाले वेंडर आदि शामिल होते हैं। किसी कंपनी का परिसमापन होना ठीक है, लेकिन जब कंपनी को चालू हालत में बचने की योजना बनाई जाती है और उसके संसाधनों का परिचालन जारी रहता है तो परिचालन ऋणदाताओं के हितों के बारे में भी विचार किया जाना चाहिए। अन्यथा संपत्तियां बेकार हो जाएंगी और बहुत से मामलों में ऐसा हो भी रहा है।
उच्चतम न्यायालय आईबीसी की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। परिचालन ऋणदाताओं ने आईबीसी की वैधता को चुनौती देते हुए याचिकाएं दाखिल की थीं। उन्होंने आरोप लगाया था कि परिचालन ऋणदाताओं के कुछ वर्गों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। उनका कहना था कि कानून वित्तीय ऋणदाताओं के हितों की सुरक्षा कर रहा है।
किसी बिजली संयंत्र के लिए परिसमापन की प्रक्रिया शुरू होते ही बिजली खरीद समझौते और ईंधन आपूर्ति समझौते की वैधता खत्म हो जाती है। उनकी गैर-मौजूदगी में कोई भी बोलीदाता आगे नहीं आता है। हालांकि भारतीय दिवालिया कानून ज्यादातर विकसित देशों की तुलना में ज्यादा जटिल है। लेकिन अमेरिका और कुछ अन्य देशों से यहां कानून में संपत्तियों को सुरक्षित बनाए रखने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। इसका मतलब है कि जब बैंकर डिफाॅल्ट करने वाले किसी इस्पात कंपनी के खिलाफ मामला दायर करते हैं तो फैक्टरी की देखभाल करने के लिए कोई सुरक्षाकर्मी मौजूद नहीं रहने के कारण उसकी मशीनरी गायब हो सकती है।
इसके अलावा समाधान पेशेवर को कोई सुरक्षा नहीं दी गई है। हाल में पुलिस ने उस समाधान पेशेवर के खिलाफ एफआईआर दर्ज की, जो पश्चिम बंगाल में एक कंपनी की दिवालिया प्रक्रिया को संभाल रहा था। इस कंपनी ने अपने कर्मचारियों की भविष्य निधि सरकारी प्राधिकरणों के पास जमा नहीं कराई थी।
आखिर में यह कोई नहीं जानता कि बिकने वाली संपत्ति की बोली प्रक्रिया कब खत्म होगी क्योंकि बोली हारने वाले भी नए सिरे से बोली लगा सकते हैं और नए बोलीदाता बोली लगाने की दौड़ में शामिल हो सकते हैं। बोली प्रक्रिया बंद करने के बाद नई बोलियों को मंजूरी देने से कीमत तय करने में मदद मिलती है, लेकिन इससे असामान्य देरी होती है और प्रक्रिया की शुचिता खत्म होती है। ऐसा लगता है कि न्यायपालिका जल्द समाधान के बजाय ज्यादा से ज्यादा कीमत के पक्ष में है।
एक से अधिक संपत्तियों का कोई भी सफल बोलीदाता मेज पर पैसे डालने में सफल नहीं रहा है। हाल में ‘भविष्यवक्ता’ ने मुझे बताया था कि दिवालिया संहिता डीआरटी (कर्ज वसूली न्यायाधिकरणों) से थोड़ी ही बेहतर है। डीआरटी की स्थापना बैंक और वित्तीय संस्थान बकाया कर्ज वसूली अधिनियम (आरडीबीबीएफआई) 1993 लागू होने के बाद हुई थी। यह अधिनियम फंसे कर्जों के विवादों को सुलझाने में बुरी तरह नाकाम रहा। देश भर में तीन दर्जन से अधिक डीआरटी में करीब एक लाख मामले लंबित हैं।
विश्व बैंक के एक अनुमान में कहा गया है कि पुराने कानून के तहत दिवालिया मामले के समाधान में औसतन 4.3 वर्ष लगते थे और वसूली प्रत्येक डाॅलर में 25.7 सेंट थी। किसी डिफाॅल्टर को डीआरटी में घसीटने का पहला उदाहरण मार्डिया केमिकल्स लिमिटेड है। यह मामला इस चीज का सबसे अच्छा उदाहरण है कि ऋणदाता कितने असहाय हैं। आईबीसी डिफाॅल्टरों को डराने और बातचीज की मेज पर लाने के सबसे अच्छे औजार के रूप में उभर रही है। जब तक आईबीसी कानून की खामियां दूर नहीं होंगी और डिफाॅल्टरों के लिए सामान्य कानूनी रास्ता बंद नहीं होगा, तब तक ऋणदाताओं को मामले के समाधान के लिए लंबे समय तक इंतजार करना होगा। निस्संदेह अगर डिफाॅल्टरों को अदालतों में जाने की मंजूरी नहीं दी जाएगी तो आईबीसी को कठोर कानून करार दिए जाने का जोखिम है।
सौजन्यः बिज़नेस स्टैडंर्ड