GST Tax Payers Get Social Security Net

The launch of the goods and services tax or GST in the whole country in July 2017 and its implementation in the last five-odd years have suffered from many policy mishaps. As the GST completes five years of its operation in July 2022, a review of these mishaps would be instructive.

The first mishap took place even before the GST was launched. To secure the support of all the states for the new indirect taxes system, the then finance minister Arun Jaitley has assured them an annual revenue growth rate of 14 per cent from the GST, anything below which would entitle them to a compensation from the centre for the first five years after its rollout.

Perhaps, that promise could be justified on the grounds that a major tax reform required a special incentive for stakeholders to embrace it. But there is no denying that the promised annual revenue growth rate was on the higher side and has now made the discontinuation of the compensation at the end of five years in July 2022 a major problem.

To be sure, India’s GST regime also benefitted from a few pragmatic and sensible moves. The Council had launched the e-way billing system to capture all inter-state movement of goods from April 2018. A more rigorous scheme of e-invoicing was introduced from October 2020 to capture transactions above a certain consignment value. Its coverage got wider over time.

Aided by the general economic recovery, the use of technology to track movement of consignments and transactions through e-invoicing, a more effective mapping of direct as well as indirect tax data and a rise in imports helped the GST collections in 2021-22. The average monthly rate of collections rose to Rs. 1.23 trillion. Even though the GST collections’ share in the gross domestic product rose marginally to 6.28 per cent in 2021-22 (almost the same level of 6.22 per cent in 2018-19), the improvement in overall collections has given the much-needed fiscal cushion to both the Centre and the states.

But now the danger is that, even before the gains from the economic recovery and the improvements in collections efficiency have stabilized, the GST Council is attempting another big change in the rates, which if implemented in the proposed manner would be yet another policy mishap. Two ideas are doing the rounds. One suggests that the lowest duty band of 5 per cent should be split into two- 3 per cent and 8 per cent. The other idea suggests raising rates for over 140 items, mostly consumer durable goods, from the current 18 per cent to 28 per cent.

Both ideas are problematic. It is not sensible to rise rates when inflation is already elevated. They are also flawed as they assume that raising rates alone can help the GST Council meet its challenges. The need of the hour is to reform the GST rate structure, not just raise the rates. Reducing the number of slabs to three should be the way out, which would require an increase in a few rates and a cut for many others. The lessons from the past five years should not be forgotten. The Council failed to use the opportunity of reducing the number of slabs when it was slashing rates in 2017 and 2018. If it has to raise the rates now, it must be accompanied with a reduction in the slabs.



 

जीएसटी दरें बढ़ाएं लेकिन सुधारों के बिना नहीं


जुलाई 2017 में लागू वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) व्यवस्था का बीते पांच वर्षों में क्रियान्वयन कई नीतिगत दिक्कतों का शिकार रहा है। जुलाई 2022 में जीएसटी को शुरू हुए पांच वर्ष हो रहे हैं, ऐसे में इससे जूड़ी गड़बड़ियों की समीक्षा उचित होगी।

पहली दिक्कत जीएसटी की शुरूआत के भी पहले सामने आई। नयी अप्रत्यक्ष कर प्रणाली के लिए सभी राज्यों का समर्थन हासिल करने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली ने उन्हें आशवस्त किया था कि जीएसटी से सालाना 14 फीसदी की राजस्व वृद्धि मिलेगी। कहा गया कि इससे कम राजस्व मिलने पर पांच साल तक केंद्र भरपायी करेगा।

इस वादे को शायद इस आधार पर उचित ठहराया जा सकता है कि बड़े कर सुधारों में अंशधारकों के लिए विशेष प्रोत्साहन की जरूरत होती है ताकि वे इसे अपनाएं। परंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि 14 फीसदी की वांछिक राजस्व दर बहुत ऊंची थी और जुलाई 2022 में क्षतिपूर्ति की व्यवस्था समाप्त होने के बाद यह एक बड़ी समस्या होगी।

यकीनन भारत की जीएसटी व्यवस्था को कुछ कदमों से फायदा भी हुआ। परिषद ने अप्रैल 2018 से वस्तुओं के अंतरराज्यीय आवागमन के लिए ई-वे बिलिगं की व्यवस्था की। अक्टूबर 2020 में ई-इनवॉइसिंग की अधिक कड़ी व्यवस्था लागू की गई ताकि एक तय मूल्य से अधिक के लेनदेन को दर्ज किया जा सके। समय के साथ इसका दायरा बढ़ता गया।

आर्थिक स्थितियों में सुधार, वस्तुओं के आवागमन पर नजर रखने की तकनीकी क्षमता विकसित होने तथा ई-इनवॉइसिंग के जरिये लेनदेन तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर के आंकड़ो पर बेहतर नजर की बदौलत 2021-22 में जीएसटी संग्रह मे सुधार हुआ। इस दौरान औसत मासिक संग्रह में सुधार बढ़कर 1.23 लाख करोड़ रुपये हो गया. 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद में जीएसटी संग्रह की हिस्सेदारी में 6.28 फीसदी का मामूली इजाफा हुआ लेकिन कुल संग्रह में सुधार से केंद्र एवं राज्यों को जरूरी बचाव मिला।

परंतु अब खतरा यह है कि आर्थिक सुधार के लाभ सामने आने तथा संग्रह के सक्षम ढंग से स्थिर होने के पहले ही जीएसटी परिषद एक बार फिर दरों में बदलाव का प्रयास कर रही है। अगर इस बदलाव को प्रस्तावित ढंग से लागू किया गया तो यह पुनरू एक गलती होगी। दो विचार चर्चा में हैं। एक कहता है कि 5 फीसदी के न्यूनतम शुल्क दायरे को 3 फीसदी और 8 फीसदी की दो दरों में बांट दिया जाए। दूसरा विचार कहता है कि 140 वस्तुओं, जिनमें से ज्यादातर टिकाऊ उपभाक्ता वस्तुएं हैं, उनके लिए दरें मौजूदा 18 फीसदी से बढ़ाकर 28 फीसदी कर दी जाएं।

दोनों विचार दिक्कतदेह हैं। ऐसे समय में जबकि मुद्रास्फीति बढ़ी हुई है, दरों में इजाफा करना समझदारी नहीं होगी। ये विचार इसलिए भी गलत हैं क्योंकि ये मानते है कि दरो को बढ़ाने से जीएसटी परिषद को अपनी चुनौतियों से पार पाने में मदद मिलेगी। समय की मांग तो यह है कि जीएसटी दरों के ढांचे में सुधार किया जाएं, न कि केवल दरें बढ़ायी जाएं। स्लैब को कम करके 3 तक सीमित किया जा सकता है। ऐसे में कुछ दरों में इजाफा करने तथा कई अन्य में कटौती करने की जरूरत पड़ेगी। बीते पांच वर्ष से मिले सबक को भूलना नहीं चाहिए। परिषद 2017 और 2018 में दरें कम करते समय स्लैब कम करने का अवसर गंवा चुकी है। यदि अब उसने दरें बढ़ाई तो उसे साथ में स्लैब की तादाद कम करनी चाहिए।