Covid haze in an Indian maze
- June 3, 2020
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We’re all in this together” is a common sentiment doing the rounds globally amid the battle against Covid-19. Countries are all facing similar challenges like a sudden stop to economic activity, small businesses hit particularly hard and a collapse in financial markets.
The faint silver lining for India is that it is running a few weeks behind several other countries in terms of the spread of the virus, and learning much from their experience. The relatively early lockdown was an example of this. But it is important to acknowledge some differences. India’s unique characteristics may lead to different outcomes, or at least raise uncertainty regarding the outcomes, making it a complicated job for policymakers.
The optimists point out that India’s relatively early lockdown can blunt the challenges of high population density. The pessimists respond that the large migration of labourers back to their villages since the lockdown was announced was counterproductive. The truth is that given so many cross-currents, it is hard to predict exactly how the virus proliferation will pan out in India.
The large dislocation in India’s workforce could make it hard to restart activity. The recent mass exodus of labour from urban centres means that the lockdown is not a simple switch that can be turned on and off. Labour will only gradually return to work and activity could take time to restart even when the virus fears are behind us.
Policymakers will therefore have a proactive role to play in the long-drawn-out recovery process in addition to their firefighting role right now. Partnering with other entities — NGOs, private corporates and local governments — through the process may be a good idea.
The large informal sector — involving day labourers and one-man shops which typically operate in cash — do not have access to the same safety nets as the formal sector does. As much as 85 per cent of Indian labour works informally and a lion’s share of Indian firms are in the informal sector..
भारत की भूलभुलैया में कोविड की धुंध
कोविड.19 के खिलाफ जारी जंग के बीच दुनिया भर में ऐसा अहसास देखा जा रहा है कि ‘हम सब इस हाल में साथ हैं।’ देशों को एक जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। मसलन, अचानक सारी आर्थिक गतिविधियों का ठप पड़ जाना, छोटे कारोबारों पर तगड़ी मार पड़ना और वित्तिय बाजारों का धराशायाी हो जाना।
भारत के लिए एक मात्र फर्क यह है कि यह वायरस के प्रसार के मामले मेें बाकी देशों से कुछ हफ्ते पीछे चल रहा है, लिहाजा वह उनके अनुभवों से काफी कुछ सीख रहा है। देश भर में लाॅकडाउन का फैसला अपेक्षाकृत जल्दी लिया गया और वह इसी सबक का नतीजा था। लेकिन इसी के साथ हमें कुछ विभेदों को स्वीकार भी करना है। भारत की अलग खासियत के चलते कोविड महामारी के नतीजे बाकियों से अलग भी हो सकते हैं या कम-से-कम नतीजों को लेकर अनिश्चितता का भाव पैदा कर सकते हैं जिससे नीति-निर्माताओं के लिए कदम उठाना जटिल हो रहा है।
आशावादी कहते हैं कि भारत का तुलनात्मक रूप से जल्द लाॅकडाउन करने का फैसला उच्च जनसंख्या घनत्व से उपजने वाली चुनौतियों पर भारी पड़ सकता है। वहीं निराशावादियों का मानना है कि लाॅकडाउन की घोशणा होते ही बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का अपने-अपने गांव लौटना उलटा पड़ सकता है। इतने सारे विरोधाभासी हालात को देखते हुए यह अनुमान लगा पाना काफी मुश्किल है कि वायरस का प्रसार भारत में किस तरह होगा?
नीति-निर्माताओं में ऐसी सोच हो सकती है कि वे नीतिगत शस्त्रागार में ताकत को बचाकर रखें ताकि हालात बेहद खराब होने पर उसका इस्तेमाल किया जाए। इस रवैये के साथ समस्या यह है कि अनिश्चितता का लंबा दौर अपने-आप में खासा महंगा साबित हो सकता है।
दूसरा, भारत के कार्यबल में हुआ बड़ा विस्थापन आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू होने की राह में बड़ी अड़चन बन सकता है। शहरी इलाकों से बड़े पैमाने पर गांवों की तरफ लौटाने का यह मतलब है कि लाॅकडाउन कोइ्र साधारण स्विच नहीं है जिसे ऑन-ऑफ किया जा सके। मजदूर धीरे-धीरे ही काम पर लौटेंगे और वायरस के पूरी तरह खत्म हो जाने के बाद भी कामकाज पटरी पर आने में समय लग सकता है।
ऐसे में नीति-निर्माताओं को मौजूदा समस्याओं का मुकाबला करने के साथ ही रिकवरी की दीर्घकालिक प्रक्रिया में भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी। गैर-सरकारी संगठनों, निजी कंपनियों और स्थानीय निकायों को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनाना एक अच्छी सोच हो सकती है।
तीसरा, बड़ै अनौपचारिक क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूरों के अलावा नकदी पर ही आश्रित एकल-व्यक्ति दुकानें भी आती हैं। इस क्षेत्र को औपचारिक क्षेत्र की तरह सुरक्षा आवरण नहीं मिलता है। सच तो यह है कि करीब 85 फीसदी भारतीय श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में ही काम करते हैं और भारतीय फर्माें का बड़ा हिस्सा भी इसी क्षेत्र में आता है।