Economy: A Change in Direction
- April 30, 2021
- 0
When Prime Minister Narendra Modi first came to power in 2014, many market participants were convinced that we would see a push for growth through policy liberalization, reducing government involvement in the economy and a more stable policy framework. Rebuilding growth in India has been more challenging than we thought.
The Indian economy has disappointed over the last few years, unable to regain its growth vigor. The government has also not been as probusiness as most had assumed. Corporate churn has never been higher and private investment and profitability never lower than today. The government has reestablished the primacy of economic growth as its top priority and accepted the need to put the private sector at the heart of the growth agenda.
Despite huge temptation, fiscal need and global precedents, the government did not raise taxes. The message is clear: our tax rates are high enough, we can’t get more money by constantly squeezing the same 20 million taxpayers. We need to expand the base, and growth is the only way to get the tax-to-GDP ratio higher.
For markets, this was a refreshing change, braced as they were for higher tax rates or at least a surcharge. For a government, which over the years has raised taxes on dividends, reintroduced capital gains taxes and put in various surcharges on the rich, to not raise any taxes any taxes when their back was to the wall fiscally, indicates a change in approach. Lower taxation incentivizes investment and boosts risk-taking and entrepreneurship. Exactly what we need at this juncture to kick-start the economy. It also improves relative returns on capital in a global context.
The whole approach of the government committing to withdrawing from all sectors of the economy except a handful is almost a 180-degree turn from the industrial policy resolution of 1956, wherein the public sector was seen as critical to dive our economic development. The government is committing to divest/merge or wind down hundreds of enterprises. It is also using strategic sales as the primary route. This will release huge resources, and improve productivity of capital across the economy. Assets will be put to better use and throw up large opportunities for the private sector. This will be a gargantuan execution challenge.
आर्थिक वृद्धि की दिशा में बदलाव
जब प्रधानमंत्री नरेंद मोदी वर्ष 2014 में पहली बार सत्ता में आए तो लगा था कि नीतियों के उदारीकरण के जरिये वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगा, अर्थव्यवस्था में सरकारी संलिप्तता कम होगी और अधिक टिकाऊ नीतिगत मसौदा आएगा। लेकिन भारत में वृद्धि का पुनर्निर्माण लोगों की सोच से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण रहा है।
भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले कुछ वर्षों में निराश किया है और अपनी वृद्धि की प्रबलता को हासिल करने में नाकाम रहा है। सरकार भी लोगों की अपेक्षाओं के हिसाब से उतनी कारोबार-समर्थक नहीं रही है। कंपनियों की भागीदारी कभी भी बहुत अधिक नहीं रही है और निजी निवेश एवं लाभप्रदता आज से कम कभी नहीं रही है।
हालांकि पिछले छह महीनों में सरकार ने आर्थिक वृद्धि की प्राथमिकता को अपनी शीर्ष प्राथमिकता के रूप में फिर से स्थापित किया है और निजी क्षेत्र को वृद्धि एजेंडा के केंद्र में रखने की जरूरत स्वीकार की है।
भारी लालच, राजकोषीय जरूरत एवं वैश्विक नजीरें होने के बावजूद सरकार ने करों की दरें नहीं बढ़ाई। संदेश एकदम साफ हैः हमारी कर दरें पहले ही काफी ऊंची हैं और हम उन्हीं 2 करोड़ करदाताओं को बार-बार निचोड़कर अधिक पैसे नहीं जुटा सकते हैं। हमें करदाताओं का आधार बढ़ाने की जरूरत है और कर-जीड़ीपी अनुपात बढ़ाने का इकलौता तरीका वृद्धि ही है। ऐसी स्थिति में असली मंत्र कर दरों को कम करना और उन्हें सरल बनाना है।
बाजार के नजरिये से यह एक ताजगी भरा बदलाव था क्योंकि वे कर दरों में बढ़ोतरी या फिर एक अधिभार की उम्मीद कर रहे थे। जो सरकार राजकोषीय स्तर पर मुश्किल में होने पर भी वर्षों से लाभांश पर कर वसूलती रही है, पूंजीगत लाभ कर को फिर से लागू किया है और संपन्न लोगों पर कई तरह के अधिभार लगाती रही है, उसके नजरिये में यह एक बदलाव को दर्शाता है। कम कराधान से निवेश को प्रोत्साहन मिलता है और जोखिम लेने एवं उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलता है। अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए इस वक्त हमें ठीक उसी चीज की जरूरत है।
कुछ मुट्ठी-भर क्षेत्रों से अलग होने की सरकार की मंशा को देखते हुए सरकार का पूरा रवैया ही लगभग 180 डिग्री घूम चुका है। औद्योगिक नीति प्रस्ताव 1956 के तहत सार्वजनिक क्षेत्र को हमारे आर्थिक विकास का वाहक माना जाता था। सरकार सैकड़ों उद्यमों के विनिवेश या विलय या बंद करने की प्रतिबद्धता जता रही है। यह रणनीतिक बिक्री को प्राथमिक मार्ग के तौर पर इस्तेमाल करने वाली है। इससे बड़े पैमाने पर संसाधन विमुक्त होंगे और अर्थव्यवस्था में पूंजी की उत्पादकता सुधरेगी। परिसंपत्तियों का बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा और निजी क्षेत्र के लिए बड़ी संभावनाएं पैदा होंगी। लेकिन इसे अमल में लाना एक बहुत बड़ी चुनौती होगी।