Impact of Strength in US Dollar
- October 12, 2022
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Most currencies have depreciated meaningfully against the US Dollar this year, whose strength is a sign of risk-version among global asset holders. That means tight monetary conditions globally, transmitted, mot least through a stronger US Dollar (USD), which would force non-US centre banks to maintain a tighter policy than otherwise warranted just to keep their exchange rate stable.
Thus, for a few quarters, US policy spill-overs may be negative on both fiscal and monetary fronts for Asia and most emerging markets: Fiscal tightening hurts goods demand, and together with de-stocking triggers weaker prices; and tight monetary conditions that preclude any policy boost to local demand. This is over and above he energy-market disruptions caused by the Russia-Ukraine conflict and instability in the Chinese real-estate market.
Most economic trends tend to have self-correcting attributes. Falling prices, for example, can help boost demand for goods. Tight monetary conditions can eventually force inflation down. Weak currencies are a form of monetary tightening, Implying that interest rates may not need to rise as much as earlier anticipated if the USD continues to strengthen.
Equally importantly, given the current geopolitical context, the policy coordination one saw between major economies and economic blocs in recent decades may only revive if there is a crisis. A crisis provides cover for policymakers to take decisions that political realities would otherwise prevent.
For Indian policymakers, this means a prolonged period of weak capital inflows and a wide balance-of-payments deficit. The investment cycle in India, which has seen a heartening pick-up in ordering in the last few quarters, is also at risk. Evidence of excess capacity globally could push out the need for new capacity in India, not just due to the weakening of prospects for exports, but also due to the rising threat of imports. The only relief could be from lower energy prices, but supply reduction could forestall that.
अमेरिकी डॉलर की मजबुती का प्रभाव
अमेरिकी डॉलर की तुलना में इस वर्ष अधिकांश मुंद्राओं का अवमूल्यन हुआ है। इस बीच गैर अमेरिकी केंद्रीय बैंकों को मौंद्रिक नीति सख्त बनाकर रखनी होगी और केवल विनिमय दर को स्थिर रखने से काम नहीं चलेगा।
ऐसे में कुछ और तिहमाहियों तक अमेरिकी नीतियों का प्रभाव एशिया तथा उभरते बाजारों की राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों पर नकारात्मक ही रहेगा। राजकोषीय सख्ती वस्तुओं की मांग पर असर डालती है मौद्रिक हालात के सख्त होने से स्थानीय मांग को नीतिगत गति नहीं मिल पाती। यह मामला रूस-यूक्रेन विवाद के चलते ऊर्जा बाजार में और चीन के अचल संपत्ति बाजार में अस्थिरता के कारण उत्पन्न विसंगतियों से इतर है।
अधिकांश आर्थिक रूझानों में स्वयं सुधार की प्रवृत्ति होती है। उदाहरण के लिए घटती कीमतों के कारण वस्तुओं की मांग बढ़ सकती है। सख्त मौद्रिक हालात मुद्रास्फीति को कम कर सकते हैं। कमजोर मुद्रा एक तरह की मौद्रिक सहजता है और मजबूत अमेरिकी डॉलर एक तरह की मौद्रिक सख्ती। यानी अगर डॉलर मजबूत होता रहा तो शायद ब्याज दरों में उतना इजाफा नहीं करना पड़े जितना पहले सोचा गया था।
मौजूदा भूराजनीतिक संदर्भों को देखें तो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और आर्थिक समूहों के बीच नीतिगत समन्वयन तभी पनप सकता है जब कोई संकट की स्थिति हो। संकट की स्थिति नीति निर्माताओं को यह अवसर देती है कि वे ऐसे निर्णय लें जो राजनीतिक हकीकतों के कारण अन्यथा नहीं लिए जाते।
भारतीय नीति निर्माताओं के लिए इसका अर्थ है कमजोर पूंजीगत आवक का लंबा दौर और बढ़ा हुआ भुगतान संतुलन घाटा। भारत में निवेश चक्र जिसने पिछली कुछ तिमाहियों में तेजी देखी थी वह भी जोखिम में है।
वैश्विक स्तर पर अतिरिक्त क्षमता के प्रमाण भारत में भी नई क्षमता की जरूरत पर जोर बढ़ा सकते हैं। ऐसा केवल निर्यात की कमजोर संभावना की बदौलत नहीं होगा बल्कि आयात के बढ़ते खतरे की बदौलत भी ऐसा होगा। इकलौती राहत ईंधन की कमजोर कीमत से मिल सकती है लेकिन आपूर्ति में कमी उसे भी प्रभावित कर सकती है।