Right to Repair Campaign
- November 25, 2021
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The average consumer purchases an electronic gadget, knowing that it will very quickly become obsolete as its manufacturer releases newer, shinier, and more amped up versions of the same device. As your device grows older, issues start to crop up. When this happens, more often than not, you are left at the mercy of manufacturers who make repairs inaccessible for most, by dictating who can fix your device and making it an inordinately expensive affair.
So, why aren’t consumers permitted to fix their gadgets themselves? This is a question advocates of the worldwide ‘right to repair’ movement have been addressing for decades now. In recent years, countries around the world have been attempting to pass effective ‘right to repair’ laws. But it is no surprise that the movement has faced tremendous resistance from tech giants such as Apple and Microsoft over the years.
Why is this discussion?
US President Joe Biden signed an executive order calling on the Federal Trade Commission to curb restrictions imposed by manufacturers that limit consumer’s ability to repair their gadgets on their own terms. The UK, too, introduced right-to-repair rules that should make it much easier to buy and repair daily-use gadgets such as TVs and washing machines.
In the year 2019, the European Union also implemented the Right to Repair rule.
Under this, companies will have to make such products which are more durable. On selling the product, spare parts will also have to be given along with it so that the machine can work without any problem for at least 10 years. Electric products, washing machines and fridges will come under this rule.
What is the reason for the Right to Repair campaign?
They argue that these electronic manufacturers are encouraging a culture of ‘planned obsolescence’ – which means that devices are designed specifically to last a limited amount of time and to be replaced. This, they claim, leads to immense pressure on the environment and wasted natural resources.
It led to start the Right to Repair campaign. By the way, it is believed that this campaign started lightly as early as in the 50s. Now under this, strictness is going to put on manufacturing companies through changes in policies.
Degrading quality
In the last few years, the quality of the products of the manufacturing companies has steadily declined. According to a research, there was a sharp decline in the quality of home appliances from 2004 to 2012. In 2004, electronic machines used to run properly for five years and even after that about 3.5 percent of the machines were deteriorating. In the year 2012, this percentage increased to 8.3. The machines coming after this are not able to run properly even for five years.
Environment in danger due to electronic junk
In Europe itself, there are many such lamps whose bulb cannot be replaced after being damaged, but the entire lamp has to be thrown away. The toxic gas released due to such electronic items is polluting the environment. After spoiling quickly, it turns into e-junk or electronic junk, which is also very difficult to recycle.
Two years ago, there was a big issue, which was reported by The Guardian. It told through a news that how a customer’s shoes were destroyed by the shoe repair company itself. The initial range of these shoes of Church brand is around 35 thousand rupees. When the shoes broke down, the customer sent them to the manufacturing company for repair. A few days later, a call came from the co. that your shoes were being destroyed. When the customer asked the reason, he got the answer that the shoes of that particular brand are repaired only twice. After that they are thrown away. Even on papers it is mentioned but in such small letters that hardly anyone can read them.
In view of these things, the Right to Repair campaign
The pressure on the companies implementing this is to make more and more durable products which are in the interest of the customers. In the absence of this, the customer can make a big claim on the company.
Local mechanics training
Customers demanded that the manufacturing companies make such things which are sustainable. They also wanted that after the warranty is over, apart from servicing from the company, local mechanics should also get training in any particular service. With this, customers will have options and work will be done at a lower cost. Otherwise, till now it happens that if the product gets damaged, the customers have to go to the company and get it repaired by paying a big price.
Why are companies protesting?
According to a report, many companies such as Apple, Microsoft and Tesla are against this campaign. They are neither guaranteeing to repair the goods themselves nor are they allowing third party ie local mechanics to do so. They argue that their product is their intellectual property. In such a situation, due to the training of repair of their product and making the goods available in the open market, their own identity will be lost.
राइट टू रिपेयर अभियान
ग्राहक मान रहे हैं कि कंपनियां जान-बूझकर ऐसे इलेक्ट्रॉनिक सामान बनाती हैं, जो कुछ वक्त बाद खराब हो जाए. स्थानीय बाजार में उसके पार्ट्स नहीं मिलते और न ही रिपेयरिंग हो पाती है. इसे ही टारगेट करते हुए राइट टू रिपेयर कैंपेन (Right to repair movement) शुरू हुआ.
आप कोई महंगा इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लेते हैं. कुछ दिनों बाद ही उसमें समस्याएं आने लगती हैं. यहां तक कि सालभर बाद ही ऐसी नौबत आ जाती है कि या तो उसे रिपेयर करवाया जाए या फिर नया मॉडल खरीदा जाए. मरम्मत के लिए जाएं तो उसकी कीमत बहुत ज्यादा होती है, जिसके बाद भी उत्पाद के ठीक होने की कोई गारंटी नहीं. ये मुश्किल सभी आए-दिन झेलते हैं. इसे ही लेकर यूरोप समेत पश्चिमी देशों में राइट टू रिपेयर अभियान (Right to repair movement) चला. लेकिन इसे प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनियों का भारी विरोध झेलना पड़ रहा है.
क्यों हो रही है चर्चा?
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने एक बिल पर दस्तखत किए. इससे फेडरल ट्रेड कमीशन उन नियमों को बदल सकेगा, जिसके तहत कंपनियां किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के कम समय में बिगड़ने पर भी उसे सुधारने की जिम्मेदारी नहीं लेती हैं. यूके पहले ही ये नियम ला चुका, जिससे टीवी या वॉशिंग मशीन खरीदने वाले, सामान के खराब होने पर उसे उसी कंपनी से सुधरवा सकेंगे.
साल 2019 में यूरोपियन यूनियन ने भी राइट टू रिपेयर नियम लागू किया
इसके तहत कंपनियों को ऐसे उत्पाद बनाने होंगे जो ज्यादा टिकाऊ हों. प्रोडक्ट बेचने पर उसके साथ ही स्पेयर पार्ट्स भी देने होंगे ताकि मशीन कम से कम 10 सालों तक बिना किसी परेशानी के काम कर सके. बिजली के उत्पाद, वॉशिंग मशीन और फ्रिज इसी नियम के तहत आएंगे.
क्या है राइट टू रिपेयर कैंपेन की वजह?
माना जा रहा है कि कंपनियां जान-बूझकर ऐसे उत्पाद बनाती हैं, जो जल्द ही खराब हो जाएं. इसके बाद बाजार में उस खराब पार्ट का विकल्प भी नहीं मिलता है. न ही कंपनी इसे खुद सुधारने का आश्वासन देती है. ये इलेक्ट्रॉनिक जंक का हिस्सा बन जाएगा. यानी आपके नुकसान के साथ ये पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहा है. यही देखते हुए राइट टू रिपेयर अभियान शुरू हुआ. वैसे माना जाता है कि ये अभियान हल्के-फुल्के ढंग से 50 के दशक में ही चल निकला था. इसके तहत नीतियों में बदलाव के जरिए मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों पर सख्ती बरतने की शुरुआत होने जा रही है.
क्वालिटी जानबूझकर गिराई जा रही
पिछले कुछ सालों में निर्माता कंपनियों के प्रोडक्ट्स की क्वालिटी लगातार गिरी है. एक शोध के अनुसार 2004 से 2012 के दौरान होम अप्लायंसेस की क्वालिटी में तेजी से गिरावट आई. 2004 में इलेक्ट्रॉनिक मशीनें पांच सालों तक ठीक से चला करतीं और इसके बाद भी लगभग 3.5 फीसदी मशीनें खराब हो रही थीं. साल 2012 में ये प्रतिशत बढ़कर 8.3 हो गया. इसके बाद आ रही मशीनें पांच साल भी ठीक से नहीं चल पा रही हैं.
इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ के चलते पर्यावरण खतरे में
यूरोप में ही कई ऐसे लैंप हैं जिनका बल्ब खराब होने के बाद दोबारा नहीं बदला जा सकता, बल्कि पूरा का पूरा लैंप फेंकना होता है. ऐसे इलेक्ट्रॉनिक सामानों की वजह से निकलने वाली जहरीली गैस वातावरण को प्रदूषित कर रही है. जल्दी खराब होने के बाद ये ई-जंक या इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ में बदल जाती है, जिसे रिसाइकल करना भी काफी मुश्किल है.
दो साल पहले एक मामला काफी उछला था, जिसे द गार्डियन ने रिपोर्ट किया था. उसमें एक खबर के जरिए बताया कि कैसे एक ग्राहक के जूते खुद जूते रिपेयर करने वाली कंपनी ने नष्ट कर दिए. चर्च ब्रांड के इन जूते की शुरुआती रेंज ही लगभग 35 हजार रुपए है. जूतों में टूटफूट होने पर ग्राहक ने उसे मरम्मत के लिए निर्माता कंपनी के पास भेजा. कुछ दिनों बाद वहां से फोन आया कि आपके जूते नष्ट किए जा रहे हैं. ग्राहक ने वजह पूछी तो जवाब मिला कि उस खास ब्रांड के जूते 2 बार ही रिपेयर किए जाते हैं. इसके बाद उन्हें फेंक दिया जाता है. यहां तक कि कागजों पर भी इसका जिक्र है लेकिन इतने छोटे अक्षरों में कि शायद ही कोई उन्हें पढ़ सके.
इन्हीं बातों को देखते हुए राइट टू रिपेयर अभियान इसे लागू करने वाली कंपनियों पर ये दबाव है कि वे ज्यादा से ज्यादा टिकाऊ उत्पाद बनाएं जो ग्राहकों के हित में हो. ऐसा न होने की स्थिति में ग्राहक कंपनी पर बड़ा दावा ठोंक सकते हैं.
स्थानीय मैकेनिकों को सुधारने की ट्रेनिंग
ग्राहकों ने मांग की कि मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां ऐसी चीजें बनाएं जो टिकाऊ हों. वे ये भी चाहते ते कि वारंटी खत्म होने के बाद कंपनी सर्विसिंग के अलावा लोकल मैकेनिकों को भी किसी खास सर्वस की ट्रेनिंग मिले. इससे ग्राहकों के पास विकल्प होंगे और कम लागत में काम हो सकेगा. वरना फिलहाल तक ये होता है कि प्रोडक्ट खराब होने पर ग्राहकों को कंपनी के पास जाकर बड़ी कीमत देते हुए रिपेयर करवाना होता है.
क्यों कर रही हैं कंपनियां विरोध?
एक रिपोर्ट के मुताबिक, कई कंपनियां जैसे एपल, माइक्रोसॉफ्ट और टेस्ला इस कैंपेन के खिलाफ हैं. वे न तो सामान खुद सुधारने की गारंटी दे रही हैं और न ही थर्ड पार्टी यानी स्थानीय मैकेनिकों को इसकी इजाजत दे रही हैं. उनका तर्क है कि उनका प्रोडक्ट उनकी बौद्धिक संपत्ति है. ऐसे में उनके उत्पाद की मरम्मत की ट्रेनिंग और सामान खुले बाजार में उपलब्ध कराने से उनकी खुद की पहचान खत्म हो जाएगी.