The Challenges of Credit Growth Before Banks
- October 4, 2020
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The Challenges of Credit Growth Before Banks
India’s banking regulator is unhappy with commercial banks’ attempts to avoid risk. These banks are refraining from lending to productive sectors of Asia’s third major economy. The Reserve Bank of India (RBI) says this trend undermines banks’ role as key financial intermediaries in the economy.
Bankers are not giving loans to those considered to be able to contribute to economic growth and provide employment because in their view these people are not worth lending. At the same time, people whom banks are willing to give loan are not asking for loans from them.
Historically, whenever bank loans have been used as a means of economic growth, the amount of bank loans has increased. This occurred after the beginning of liberalization in the nineties. In the last decade also, to avoid the impact of the global financial crisis, the same thing happened when banks were asked to accelerate economic growth by giving loans to all.
The financial system was flooded with cheap loans and bankers willingly gave loans to the unqualified borrowers. Because of this, the risk capital was left with the banks. When the RBI decided to evaluate the asset quality in the year 2016, the unruly behavior of banks came to light. This first-of-its-kind exercise showed that the quantum of stranded debt had increased. Subsequently, the RBI stopped 11 public sector banks from distributing loans.
Credit growth is being seen only in the micro, small and medium units (MSME) sector. Banks are openly distributing loans to the MSME sector as the government has guaranteed repayment of these loans. But the MSME sector alone cannot boost credit growth as the banking penetration of this segment is less than one-fifth of the bank credit market. Barring MSMEs, some road projects and some public enterprises are currently taking loans from banks. Banks would prefer to give loans to most large industries with good ratings, but they have not been asking for loans.
The question arises that what are the banks doing with the money they keep with them? They are raising interest at the rate of 3.35 per cent by placing this amount in the reverse repo account of RBI. If there are chances of earning more by distributing debt, then any idiot will be satisfied with 3.35 per cent interest. But banks are not stupid. They are doing this because the options are limited.
Certainly, loan books of some banks (especially private sector banks) are increasing significantly but this growth is not due to risk mitigation or lack of vigilance. Actually these banks are smart and they are taking away loans from public banks to corporate customers at a cheaper rate. Although the overall loan allocation is not increasing, some banks are taking over the share of other banks by giving cheap loans.
It is unreasonable to expect banks to risk capital to revive the economy. Once demand comes and industries are ready to set up new factories, banks must give them loans. But demand will also arise only when consumers are convinced that the epidemic is being controlled. In this battle against the Covid epidemic, the government has not really been seen working very poorly.
The responsibility rests with the government, not the banks. It is unreasonable to expect banks to show more courage in terms of money of common people. Apart from this, banks themselves also need capital. Most private banks have raised capital from the market in the last few months but the government has not spoken about public banks. The RBI’s annual report has emphasized recapitalization of banks as their current capital will be insufficient to make up for the losses caused by the epidemic. RBI has already warned that after the epidemic, the problem of debt stuck in the banking system will increase.
बैंकों के समक्ष ऋण वृद्धि की चुनौतियां
अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिए बैंकों से जोखिमपूर्ण पूंजी की अपेक्षा करना अनुचित है।
भारत का बैंकिंग नियामक वाणिज्यिक बैंकों के जोखिम से बचने की कोशिश को लेकर नाखुश है। ये बैंक एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों को ऋण देने से परहेज कर रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का कहना है कि यह प्रवृत्ति अर्थव्यवस्था में प्रमुख वित्तीय मध्यवर्ती के तौर पर बैंकों की भूमिका को कमतर बनाती है।
बैंकर आर्थिक वृद्धि में योगदान देने और रोजगार देने में सक्षम माने जाने वालों को कर्ज नहीं दे रहे हैं क्योंकि उनकी नजर में ये लोग कर्ज देने लायक नहीं है। वहीं जिन लोगों को ये बैंक कर्ज देना चाह रहे हैं वे उनसे कर्ज मांग ही नहीं रहे हैं।
ऐतिहासिक तौर पर जब भी बैंक ऋण का इस्तेमाल आर्थिक वृद्धि के एक साधन के तौर पर किया गया है तो बैंकों के फंसे हुए कर्ज की मात्रा बढ़ती गई है। यह नब्बे के दशक में उदारीकरण की शुरुआत के बाद हुआ था। पिछले दशक में भी वैश्विक वित्तीय संकट के असर से बचने के लिए जब बैंकों से सभी को कर्ज देकर आर्थिक वृद्धि को तेजी देने को कहा गया था तब भी यही हुआ था।
वित्तीय प्रणाली में सस्ती दर पर मिले कर्ज की भरमार हो गई और बैंकरों ने अयोग्य कर्जदारों को भी खुशी-खुशी कर्ज दे दिए। इसकी वजह से बैंको के पास जोखिम पूंजी खत्म हो गई। जब आरबीआई ने वर्ष 2016 में परिसंपत्ति की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने का फैसला किया तो बैंकों का अविवेकपूर्ण व्यवहार सामने आ गया। अपनी तरह की इस पहली कवायद से पता चला कि फंसे कर्ज की मात्रा बढ़ती गई है। इसके बाद आरबीआई ने सार्वजनिक क्षेत्र के 11 बैंकों को कर्ज बांटने से रोक दिया।
केवल सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम इकाई (एमएसएमई) क्षेत्र में ही ऋण वृद्धि देखी जा रही है। बैंक एमएसएमई क्षेत्र को खुलकर कर्ज बांट रहे हैं क्योंकि सरकार ने इन कर्ज के पुनर्भुगतान की गारंटी दी हुई है। लेकिन एमएसएमइ्र क्षेत्र अकेले ही ऋण वृद्धि को नहीं बढ़ा सकता है क्योंकि इस तबके की बैंकिंग पहुंच बैंक ऋण बाजार के पांचवें हिस्सो से भी कम है। एमएसएमई को छोड़कर कुछ सड़क परियोजनाएं एवं कुछ सार्वजनिक उपक्रम ही इस समय बैंकों से कर्ज ले रहे हैं। अच्छी रेटिंग वाले अधिकांश बड़े उद्योगों को बैंक कर्ज देना पसंद करेंगे लेकिन वे तो कर्ज मांग ही नहीं रहे हैं।
सवाल उठता है कि फिर बैंक अपने पास रखे पैसे का क्या कर रहे हैं? वे इस रकम को आरबीआई के रिवर्स रीपो खाते में रखकर 3.35 फीसदी दर से ब्याज जुटा रहे हैं। अगर कर्ज बांटकर अधिक कर्मा के मौके हों तो कोई बेवकूफ ही 3.35 फीसदी ब्याज से संतुष्ट होगा। लेकिन बैंक बेवकूफ तो हैं नहीं। वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि विकल्प ही सीमित हैं।
निश्चित रूप से कुछ बैंकों (खासकर निजी क्षेत्र के बैंक) के लोनबुक में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है लेकिन यह वृद्धि जोखिम वंचना या सतर्कता के अभाव की वजह से नहीं है। असल में ये बैंक चतुर हैं और वे सस्ती दर पर कर्ज की पेशकश को सार्वजनिक बैंकों से काॅर्पोरेट ग्राहकों को झटक ले रहे हैं। कुल ऋण आवंटन भले ही नहीं बढ़ रहा है लेकिन कुछ बैंक सस्ते कर्ज देकर अन्य बैंकों के हिस्से पर कब्जा कर रहे हैं।
अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए बैंकों से जोखिम पूंजी की अपेक्षा करना अनुचित है। एक बार मांग आने और उद्योगों के नए कारखाने लगाने के लिए तैयार होने पर बैंकों को उन्हें कर्ज जरूर देना चाहिए। लेकिन मांग भी तभी पैदा होगी जब उपभोक्ताओं को यह यकीन हो जाएगा कि महामारी पर काबू पाया जा रहा है। कोविड महामारी के खिलाफ इस जंग में सरकार असल में अभी तक बहुत दिलेरी से काम करते हुए नहीं दिखी है।
जिम्मेदारी सरकार की बनती है, न कि बैंको की। बैंको से आम लोगों के पैसे के मामले में अधिक साहस दिखाने की उम्मीद करना गैरवाजिब है। इसके अलावा खुद बैंको को भी पूंजी की जरूरत रहती है। अधिकांश निजी बैंकों ने पिछले कुछ महीनों में बाजार से पूंजी जुटाई है लेकिन सरकार ने सार्वजनिक बैंकों के बारे में कुछ नहीं बोला है। आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट ने बैंकों के पुनर्पंूजीकरण पर जोर दिया है क्योंकि उनकी मौजूदा पूंजी महामारी के चलते होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए नाकाफी होगी। आरबीआई पहले ही आगाह कर चुका है कि महामारी के बाद बैंकिंग प्रणाली में फंसे कर्ज की समस्या बढ़ेगी।