India is the second largest producer of wheat but it has not been a major exporter of grain. The Union commerce ministry planned a delegation to nine countries to promote & export Indian wheat.

Just a day before the delegations were to leave, the government abruptly announced a ban on all wheat exports with immediate effect.
Clarifications trickled in: Orders that were already signed by private traders would be allowed to be shipped. Also, government-to –government deals would continue. The latest details – that the country which bought wheat from India could only do so for domestic consumption- is a fair decision though it should have been announced right up front.

Indian policy-making and policy announcements for the last few years have been made in haste and then modified or revoked equally hastily. Notifications and clarifications keep coming out over weeks and months. Some of them are contradictory and need further clarifications.

This has happened in the case of coal procurements/imports, telecom, Covid-19 vaccine exports, e-commerce and even electric vehicles vs internal combustion engine announcements by different high-level functionaries.

In the case of major laws such as the Goods and Service Tax (GST) and the Insolvency and Bankruptcy Code (IBC), notifications, changes, amendments and clarifications were a regular feature long after the original laws were passed. In the case of the IBC, further modifications are not ruled out. In the case of GST, rates continue being tinkered with despite half a decade having passed since the original rollout.

It is nobody’s case that any policy will be perfect from day one. It also make sense to modify and refine a policy based on feedback over time.

However, the impression that is gaining ground is that in India, policy announcements are often done much before enough discussion and debate has taken place. The drafting of rules is taking place increasingly in isolation without taking enough feedback from people who will be affected by it. And far too many announcements are focused on the short term and are reactionary in nature instead of being well-thought-out strategies.

Policy rollbacks and modifications happening too frequently spook businessmen- both domestic and global. Any investor needs to be sure of the policy direction and its stability before working out his or her plans and putting big money on the ground. The united progressive Alliance government was often accused of policy paralysis because endless debates ensured that no policy was being formulated on time.

In the case of the current administrations, the problem is the reverse- policy pronouncements come in thick and fast- only to be modified or reversed equally rapidly.


नीतियों में बार-बार बदलाव


भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक है लेकिन वह गेहूं का सबसे बड़ा निर्यातक नहीं रहा हैं। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय ने नौ देशों में एक प्रतिनिधिमंडल भेजने का निर्णय लिया ताकि भारतीय गेहूं को प्रोत्साहित और निर्यात किया जा सके।

प्रतिनिधिमंडल की रवानगी के महज एक दिन पहले सरकार ने अचानक यह घोषणा कर दी कि गेहूं के निर्यात पर तत्काल प्रभाव से रोक लगायी जाती है।

इसके पश्चात स्पष्टीकरण आने शुरू हुए। कहा गया कि जिन अनुबंधों पर निजी कारोबारी पहले हस्ताक्षर कर चुके हैं उन्हें निर्यात करने दिया जाएगा। यह भी कहा गया कि सरकारों के बीच होने वाले सौदे जारी रहेंगे। ताजा ब्योरे के अनुसार भारत से गेहूं खरीदने वाले देशों को उसका घरेलु इस्तेमाल करना होगा। यह उचित निर्णय है हालांकि इसे शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए था।

बीते कुछ वर्षाे से भारत का नीति निर्माण और हमारी नीतिगत घोषणाएं जल्दबाजी में की जाती है और बाद में उन्हें उतनी ही जल्दबाजी में संशोधित किया जाता है या बदल दिया जाता है। हर महीने और हर सप्ताह अधिसूचनाओं एवं स्प्ष्टीकरण का आना जारी रहता है। उनमे से कुछ विरोधाभासी होती हैं और उन्हें आगे और अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता होती है।

उच्च स्तरीय अधिकारियो की और से कोयला खरीद/आयात, दूरसंचार, कोविड़-19 टीके के निर्यात, ई-कॉमर्स तथा यहां तक कि इलेक्ट्रिक वाहन बनाम पेट्रोल-डीजल इंजन को लेकर की गई घोषणाओं के मामले में भी ऐसा देखने को मिला। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) तथा ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) जैसे बड़े कानूनों की बात करे तो यहां भी अधिसूचना, बदलाव, संशोधन एवं स्पष्टीकरण आदि आमतौर पर देखने को मिलते रहे. मूल कानून पारित होने के बाद बहुत लंबे समय तक इनका सिलसिला चलता रहा।

आईबीसी के मामले में तो आगे भी संशोधनों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। जीएसटी के मामलों में दरों के साथ लगातार छेड़छाड़ की जा रही है जबकि इसे जारी किये हुए करीब पांच वर्ष का समय बीत चुका है। कोई भी नीति पहले दिन से एकदम परिपूर्ण नहीं हो सकती। ऐसे में समय के साथ प्रतिपुष्टि के आधार पर उनमे संशोधन करना और उन्हें बेहतर बनाना भी समझ में आता है।

बहरहाल, एक धारणा जो जोर पकड़ रही है वह यह है कि भारत में नीतिगत घोषणाएं अक्सर पर्याप्त चर्चा और बहस के बिना ही कर दी जाती है. अक्सर नियमो के मसौदे अलग-थलग ढंग से तैयार कर लिए जाते हैं और उन लोगों से कोई मशविरा नहीं लिया जाता जो उनसे प्रभावित होने वाले होते है। ज्यादातर मामलों में घोषणाएं अल्पावधि पर केंद्रित होती हैं और उनकी प्रकृति भी प्रतिक्रियावादी होती है, बजाय कि सुविचारित रणनीतियों के।

नीतियों को वापस लेना और उनमे बदलाव इतनी जल्दी-जल्दी होता है कि घरेलु और वैश्विक कारोबारी तक इससे उलझन में है। कोई भी निवेशक चाहता है कि नीतिगत दिशा स्पष्ट रहे तथा जमीन पर पैसा लगाने के पहले वह स्थिरता सुनिश्चित करना चाहता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि वह नीतिगत पंगुता की शिकार थी।

ऐसा इसलिए की वहां इतनी बहसें होती थी कि समय पर कोई नीति बन ही नहीं पाती थी. मौजूदा प्रशासन की बात करे तो दिक्कत इसके उलट है। नीतिगत घोषणाएं बहुत जल्दी की जाती है और उतनी ही जल्दी उन्हें पलट भी दिया जाता है।