पिछला वर्ष ‘निश्चित अनिश्चितताओं का वर्ष था। महामारी बीत चुकी है। लेकिन दुनिया भर में मुद्रास्फीति बरकरार है जबकि वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से ही सहज वित्तीय प्रभाव के कारण जानकारों ने मुद्रास्फीति के शुरुआती दौर को अस्थायी कहा था। इसने दुनिया भर में मांग और रोजगार को प्रभावित किया है। ब्याज दरें बढ़ी हैं तथा संरक्षणवाद नजर आ रहा है। यूरोप, पश्चिम एशिया और दक्षिण चीन सागर में भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं में विस्तार की आशंका है।

घरेलू स्तर पर देखें तो जहां हालिया संसदीय चुनावों के परिणाम चकित करने वाले रहे, वहीं जिस सहजता से सरकार बनी उससे अस्थिरता की चिंताएं दूर हुई हैं।

अर्थव्यवस्था की बात करें तो भारत ने लगातार चार वर्षों तक सात फीसदी से अधिक की वृद्धि हासिल की है। रिजर्व बैंक के कदमों के कारण कोर मुद्रास्फीति नीचे आई है, हालांकि खाद्य मुद्रास्फीति अभी भी चिंताजनक स्तर पर है। भारत ने वैश्विक वृद्धि में 18 फीसदी का योगदान किया है। खपत हमारी वृद्धि के कथानक का मुख्य आधार है और उसमें भी धीमापन आ रहा है। हालांकि अभी इसका असर सीमित है और अधोसंरचना में भारी सरकारी निवेश के कारण ढका हुआ है।

सरकार और रिजर्व बैंक ने महामारी के दौरान और उसके बाद जो कदम उठाए वह प्रभावी रहें।

गरीबी उन्मूलन में भारत का प्रदर्शन प्रभावशाली रहा है। अर्थशास्त्र के विद्वानों का मानना है कि कल्याण योजनाओं पर भारत का कुल व्यय जीडीपी के 1.8 फीसदी के बराबर है। इस स्तर के परे जाने पर राजकोषीय घाटे में कमी प्रभावित होगी और मुद्रास्फीति बढ़ेगी। उत्पादकता पर इसका बहुत कम सकारात्मक असर होगा।

कई नीतिगत विशेषज्ञों का कहना है कि रोजगार बढ़ाने और ग्रामीण इलाकों में कृषि पर दबाव कम करने के लिए विनिर्माण में इजाफाही इकलौता उपाय है।

बहरहाल, भारत में सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यम क्षेत्र फलाफूला है और ऋण का बड़ा हिस्सा उसमें जा रहा है। ऋण गारंटी जैसी योजनाएं कम डिफॉल्ट दर के साथ उपयोगी साबित हुई हैं। इनमें से कई व्यापक आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बन सकती हैं और बड़े उद्योग में बदल सकती हैं। उन्हें ऋण और कौशल के क्षेत्र में निरंतर सरकारी मदद की आवश्यकता होगी।

सेवाओं और एमएसएमई क्षेत्र की वृद्धि के कारण लोगों का गांवों से शहरों में आना बढ़ेगा।

सरकार ने जहां सस्ते घरों पर ध्यान केंद्रित किया है वहीं अधिकांश कामगारों को काम की जगह के करीब घर की आवश्यकता होती है क्योंकि वे लंबी दूरी तक सफर नहीं कर सकते। इसका अन्य संबद्ध उद्योगों पर सकारात्मक असर होगा तथा नए रोजगार तैयार होंगे।

विकसित भारत के लिए वित्तीय क्षेत्र को सहज कामकाज से परिभाषित किया जाना चाहिए जिसके लिए धैर्य, सुधारों तथा नीतिगत और नियामकीय स्थिरता की आवश्यकता होगी।