अर्थशास्त्र में ‘हाइपरबोलिंग डिस्काउंटिंग‘ एक समय असंगत मॉडल है, जो अर्थशास्त्र के आधार शिलाओं में एक है। इसमें लोग छोटे लाभ के लिए अस्थायी प्राथमिकताएं अपनाते हैं, जो देर से होने वाले लाभ की तुलना में कमतर होते है, लेकिन जल्दी मिल जाते हैं।

हाइपरबोलिंग डिस्काउंटिंग का उपयोग करने वाले व्यक्ति में समय के साथ असंगत विकल्प चुनने की एक मजबुत प्रवृत्ति होती है। वे आज ऐसा विकल्प चुनते हैं, जो शायद उन्हें भविष्य में नापसंद होंगे, भले ही आज उन्हें भविष्य के परिणाम या लाभ की पूरी जानकारी हो।

छोटा बड़ा, कोई भी निर्णय लेते समय, हम सभी प्रायः भविष्य को नजर अंदाज करते है। हम दीर्घकालिक मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान दिए बिना अल्पावधि (तात्कालिक) लाभों पर जोर देते है। वैसे यह पूरी तरह गलत भी नहीं है। वर्त्तमान में हो रही घटनाओं का असर हमारी लाभ हानि पर पड़ता है। अतः इसे नियंत्रित करते हुए ही हमें अपनी दिशा निर्धारित करनी पड़ती है। लेकिन ऐसा करते हुए, हम अपने साथ-साथ दुसरों के दीर्घावधि हितों को भी नजरअंदाज कर देते हैं।

हम एक वैश्विक कामन्स में रहते है, जिसमें प्राकृतिक संसाधन का साझा उपयोग शामिल है। वर्त्तमान में हम जिन समस्याओं का सामना कर रहें है, उनमें से कई इसलिए है, क्योंकि व्यक्तियों के अल्पकालिक हित, जरूरी नहीं कि सामुहिक भलाई में हों।

उद्योग को कच्चे माल के रूप में लकड़ी की भारी मात्रा में आवश्यकता है। बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के लिए हम सभी को चिंतीत होना ही चाहिए। लेकिन अगर हममें से कोई भी यह सोचे कि मेरे अकेले की भागीदारी ना होने से क्या फर्क पडेगा?

लोकोक्ति योग्यतम उत्तर जीवित (सबसे मजबुत का जिंदा रहना) सही होते हुए भी संकीर्ण दृष्टिकोण है। यह प्रतिस्पर्धा पर तो जोर देता है, लेकिन यह पारस्परिकता और सहकारिता को खारिज करता है।

ध्रुवीकृत समाज में लक्ष्य रखना और भी कठिन होता है। हम सभी को इस बात के लिए सहमत होना ही होगा कि वृक्षारोपण में सामूहिक सहभागिता एक समस्या है, जिससे हमें निपटना है।

इस त्रासदी से उबरने कि लिए हमें सामुहिक बुद्धिमता की आवश्यकता है। अगर हम एक दुसरे का सहयोग करेंगे तो सभी का समवेत विकास होगा। इसका समाधान आपसी दबाव हो सकता है, सभी एक साथ मिल कर काम करें और उपर से नीचे तक लागू करने की प्रक्रिया विकसित करें।

एक नजर जरा अपनी गाड़ी के ब्रेक पर डालें, जिसे हम अपनी गति को कम करने वाला मानते है। जीवन में हमारे सामने कई ऐसे ब्रेक (कठिन परिस्थितियां) आती हैं, जो हमारी गति को बाद्यित करते है और हमें निराश करते है।

लेकिन कैसा हो अगर हम उन्हें अपने समर्थक या उत्प्रेरक के रूप में देखें? ऐसे उपकरण के रूप में जो हमें जोखिम लेने में सक्षम बनाते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि हम अपनी सुरक्षा के साथ-साथ फिर से एक लंबी छलांग लगा सकें।

जीवन में हम ब्रेक के बिना दिशाहीन हो सकते है या दुर्घटना के शिकार हो सकते है। ब्रेक हमें सिर्फ पिछे धकेलने या बांधने के लिए नहीं होते है। इसके बजाय वे हमें पहले की तुलना में तेजी से आगे बढ़ने में सहायक होते हैं। ताकि हम अपने गंतव्य तक तेजी से चलते हुए शीघ्र और सुरक्षित पहुंच सके।

क्या हमें अपने जीवन में प्रदान किए हुए इस ब्रेक के लिए ईश्वर का आभारी नहीं होना चाहिए?

 

सुरेश बाहेती

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