Expanding forest cover
- November 25, 2021
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An amendment to the outworn Indian forest Act has been due for a long while, especially since 1996, when a judgment by the Supreme Court changed the very fundamentals of the concept of forests and their governance.
Any green patch that conformed to the “dictionary meaning” of the term “forest” be considered forest and governed accordingly, the court had decreed.
With this, most kinds of land with a green canopy, regardless’ prior permission before putting them to any use. Public institutions like the railways and road departments, too, needed the forest ministry’s nod to utilize their spare land alongside rail tracks and roads if trees or other vegetation had come up there. Strategically vital projects in border areas and elsewhere, too, had to go through the time-consuming process of getting necessary clearances.
The environment ministry has, therefore, done well to initiate the process to amend the existing forest legislation, though this exercise is turning out to be a long-drawn one. After the failure of the couple of initial bids to do so in 2017 and 2019, due chiefly to inimical public reaction to the mooted changes, the environment ministry has know come up with another, and thoroughly revised, note which merits consideration.
Put up in the public domain recently to elicit stakeholders’ and state governments’ response, this text does away with many of the contentious and thorny provisions of the previous drafts and can, with necessary changes, form the basis for the modification of this law. Even while decriminalizing minor offences to reduce the load on public litigation; it moots relatively high penalties for major infringements and also more stringent norms for forest conservation.
More importantly, it seeks to introduce a novel concept of “Pristine forests” where no non-forestry activity will be allowed under any circumstances. Exploring and extracting oil and natural gas from beneath the forest lands are proposed to be allowed be drilling holes from outside the forest areas without harming the underground water aquifers. This provision, however, may turn controversial as experts still differ on the efficacy of the technology.
On the upside, the new draft seeks to introduce some significant and need based reforms in the forest sector, which can potentially pave the way for forestry activates even on private lands. Most of the irksome curbs on harvesting, transit, and trade of the forest produce grown of private plots are proposed to be removed.
But , at the same time, it fails to lay due emphasis on promoting agro-forestry, which has a huge potential to expand green cover in rural areas, apart from generating additional income for the farmers. Promoting tree plantations on private lands and agricultural farms has, indeed, become imperative now in view of the paucity of government or community lands for raising new forests.
Private participation seems vital to meet the coveted targets of covering 33 per cent land with forests and creating a carbon sink to lock in 2.5-3 billion tonners of carbon dioxide as stipulated under the self-determined climate action under the Paris agreement on climate change. The paramount need today is to strike a balance between forest expansion, environment protection, and economic development. Joint Endeavour by the public and private sectors is vital to achieve this key objective.
वन क्षेत्र का विस्तार
पुराने हो चुके भारतीय वन अधिनियम में संशोधन काफी समय से लंबित थे, खासतौर पर सन 1996 के बाद से जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश के जरिये वनों तथा उनके संचालन की अवधारणा की बुनियाद को ही बदल दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि कोई भी हरित क्षेत्र ‘वन‘ शब्द को चरितार्थ करता हो उसे वन माना जाना चाहिए और उसका उसी अनुसार रखरखाव होना चाहिए। इसके साथ ही ज्यादातर हराभरा भूभाग वन मान लिया गया, भले ही उसका स्वामित्व किसी के पास हो।
ऐसे में उस जमीन के किसी भी तरह के इस्तेमाल के पहले वन अधिकारियों की मंजूरी जरूरी हो गई। रेलवे तथा सड़क जैसे सार्वजनिक विभागों को भी उस स्थिति में वन विभाग से इजाजत लेनी जरूरी हो गई जब उनकी खाली पड़ी जमीन में पेड़ पौधे उग आए हों या उगाए गये हों। सीमावर्ती इलाकों में रणनीतिक रूप से अहम परियोजनाओं को भी इस समय खपाऊ प्रक्रिया से गुजरना पड़ता और आवश्यक मंजूरी लेनी पड़ती।
ऐसे में वन मंत्रालय ने मौजूदा वन कानून में संशोधन की प्रक्रिया शुरू करके अच्छा काम किया। हालांकि यह कवायद लंबी खिंच रही है। सन 2017 और 2019 में ऐसे दो प्रयास विफल रहे क्योंकि प्रस्तावित बदलावों को लेकर आम जनता की प्रतिक्रिया अनुकूल नहीं थी। अब पर्यावरण मंत्रालय एक नए और व्यापक संशोधन वाले नोट के साथ आगे आया है जिस पर विचार किया जाना चाहिए। इसे हाल ही में सार्वजनिक किया गया है ताकि विशिष्ट अंशधारक तथा राज्य सरकारें इसे लेकर अपनी प्रतिक्रिया दे सकें।
इस नए पाठ में पिछले मसौदों के कई विवादित प्रावधानों को हटा दिया गया है तथा आवश्यक बदलावों के साथ यह इस कानून में बदलाव का आधार तैयार करता है। विवादों की तादाद कम करने के लिए इसमें जहां छोटे मोटे अपराधों के लिए दंड समाप्त करने की बात है, वहीं बड़े अपराधों के लिए अपेक्षाकृत भारी भरकम जुर्माने तथा वन संरक्षण के लिए कड़े मानकों की बात कही गई है।
इससे भी अहम बात यह है कि इसमें ‘प्राचीन जंगल‘ की नई अवधारणा शामिल की गई है। यह वह इलाका होगा जहां किसी भी हालत में किसी तरह की गैर कृषि गतिविधि की इजाजत नहीं दी जाएगी। तेल एवं प्राकृतिक गैस खनन की इजाजत भी तभी होगी जब इसके लिए वन भूमि से बाहर जमीन में छिद्र किया जाए और इस दौरान भूमिगत जल स्रोतों को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया जाए। हालांकि यह प्रावधान विवादास्पद हो सकता है क्योंकि इस तकनीक की व्यवहार्यता को लेकर विशेषज्ञों में मतभेद है।
दूसरी ओर, नए मसौदे में वन क्षेत्र को लेकर कुछ अहम और जरूरत आधारित सुधारों को शामिल करने की बात कही गई है। ये सुधार निजी भूमि पर भी वानिकी गतिविधियों का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। इनके मुताबिक निजी भूमि पर फसल उगाने, उसे लाने ले जाने और उसका कारोबार करने की राह में आने वाली अधिकांश बाधाओं को दूर किया जाना है।
परंतु इसके साथ ही नए मसौदे में कृषि वानिकी पर जोर नहीं दिया गया है जबकि इसमें ग्रामीण इलाकों में हरित क्षेत्र का विस्तार करने तथा किसानों के लिए अतिरिक्त आय उत्पन्न करने की काफी संभावना है। निजी भूमि पर पौधरोपण और कृषि को बढ़ावा देना अब अनिवार्य हो गया है क्योंकि सरकार और समुदाय के स्तर पर नए वन तैयार करने के लिए जमीन का अभाव है।
33 फीसदी हिस्से को वनाच्छादित बनाने तथा जलवायु परिवर्तन के पेरिस समझौते में स्वयं के लिए तय 2.5 से 3 अरब टन क्षमता की कार्बन डाई ऑक्साइड कार्बन सिंक (वह व्यवस्था जहां उत्सर्जन से अधिक कार्बन खपत होती है) करने के लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी अहम है। हमें वनों के विस्तार, पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास में संतुलन कायम करना होगा। इसके लिए निजी और सार्वजनिक का तालमेल आवश्यक है।