Protectionism in Trade
- November 16, 2020
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The increase in trade deficit may help macroeconomic management in the near future as it will reduce the balance of balance of payments and RBI will have to intervene in the money market less. However, In the medium term, India will have to focus on exports for sustainable growth. In the second quarter of 2020, global merchandise trade is expected to fall by 18 percent. But once the global economy stabilizes and the business scenario improves, India needs to push exports to accelerate growth. Domestic demand may remain weak in the coming years as government expenditure will be limited due to expansion in losses and increased government debt in the current financial year. Of course, both the government and the RBI will have to make policy interventions to boost exports. Shaktikant Das, in his address, rightly said that there is a need to increase India’s participation in the global value chain. The bulk of international trade now takes place through this. However, India’s participation in it is low and according to estimates it has decreased in recent years. It is not surprising that the country’s trade policy is inclined towards protectionism. Cross-border non-proliferation of goods is essential for high participation in the global value chain. High tariffs and policy uncertainty will not allow India to become an indispensable part of it.
In such a situation, it is important that the government review the trade policy and bring necessary changes for the country’s participation in the global value chain. In this context, it would be good if India reviews its stand on joining the Regional Comprehensive Economic Partnership. Apart from this, frequent policy measures like the recent ban on onion exports also affect India’s credible supplier image. Meanwhile RBI will have to ensure that the value of the rupee is reasonable. The latest estimate of the US central bank Federal Reserve suggests that the policy rate will be close to zero by 2023. This will affect the inflow of foreign funds in countries like India.
व्यापार में सरंक्षणवाद
व्यापार घाटे में इजाफा शायद निकट भविष्य में वृहद आर्थिक प्रबंधन में मदद करे क्योंकि इससे भुगतान संतुलन अधिशेष कम होगा और आरबीआई को मुद्रा बाजार में कम हस्तक्षेप करना होगा।
बहरहाल, मध्यम अवधि में भारत को सतत वृद्धि के लिए निर्यात पर ध्यान केंद्रित करना होगा। सन 2020 की दूसरी तिमाही में वैश्विक वस्तु व्यापार में 18 फीसदी गिरावट आने का अनुमान है। परंतु वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता आने पर और व्यापारिक परिदृश्य में सुधार होने पर भारत को वृद्धि को गति देने के लिए निर्यात बढ़ाने पर जोर देना होगा। आने वाले वर्षों में घरेलू मांग कमजोर बनी रह सकती है क्योंकि घाटे में विस्तार और चालू वित्त में सरकारी कर्ज बढ़ने के कारण सरकारी व्यय सीमित रहेगा। यकीनन निर्यात को बढ़ावा देने के लिए सरकार और आरबीआई दोनों को नीतिगत हस्तक्षेप करना होगा। शक्तिकांत दास ने अपने संबोधन में सही कहा कि वैश्विक मूल्य श्रृंखला में भारत की भागीदारी बढ़ाने की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार का बड़ा हिस्सा अब इसी के माध्यम से होता है। बहरहाल, इसमें भारत की भागीदारी कम है और अनुमानों के अनुसार हाल के वर्षों में इसमें कमी भी आई है। इसमें चकित होने वाली बात नहीं है क्योंकि देश की व्यापार नीति का झुकाव संरक्षणवाद की ओर हुआ है। वैश्विक मूल्य श्रृंखला में उच्च भागीदारी के लिए वस्तुओं का सीमा पार अबाध प्रसार आवश्यक है। उच्च टैरिफ और नीतिगत अनिश्चितता भारत को इसका अनिवार्य अंग नहीं बनने देगी।
ऐसे में यह अहम है कि सरकार व्यापार नीति की समीक्षा करे और वैश्विक मूल्य श्रृंखला में देश की भागीदारी के लिए जरूरी बदलाव लाए। इस संदर्भ में भारत यदि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी में शामिल होने को लेकर अपने रूख की समीक्षा करे तो अच्छा होगा। इसके अलावा हाल में लगे प्याज निर्यात पर प्रतिबंध जैसे यदाकदा उठाए जाने वाले नीतिगत कदम भी भारत की विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता की छवि पर असर डालते हैं। इस बीच आरबीआई को यह सुनिश्चित करना होगा कि रुपये का मूल्य उचित हो। अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व का ताजा अनुमान सुझाता है कि नीतिगत दर 2023 तक शून्य के करीब रहेगी। इसका असर भारत जैसे देशों में विदेशी फंड की आवक पर पड़ेगा।